🌺 परिचय
गजेन्द्र मोक्ष कथा, श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में वर्णित एक अत्यंत मार्मिक प्रसंग है। (Gajendra Moksha Story from Shrimad Bhagavatam)
यह कथा केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि भक्ति, शरणागति और ईश्वर-कृपा का जीवंत उदाहरण है।
राजा इन्द्रद्युम्न का हाथी गजेन्द्र रूप में जन्म लेना और भगवान विष्णु द्वारा उनका उद्धार करना, यह दर्शाता है कि जब जीव अपने अहंकार को त्यागकर परमात्मा की शरण ग्रहण करता है, तब भगवान स्वयं उसकी रक्षा के लिए उतर आते हैं।
🕉️ राजा इन्द्रद्युम्न का शाप और गजेन्द्र का जन्म
अति प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे।
राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी।
एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए।
लेकिन न पाद्ध, न अघ्र्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया- “इस राजा ने गुरुजनो से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।”
महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया।
🌿 त्रिकूट पर्वत और गजेन्द्र का संघर्ष
क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था।
एक बार की बात है। गजेन्द्र अपने साथियो सहित तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल हो गया। वह कमल की गंध से सुगंधित वायु को सूंघकर एक चित्ताकर्षक विशाल सरोवर के तट पर जा पहुंचा। गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल,शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया।
पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीड़ा आरम्भ कर दी। वह अपनी सूंड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की।
पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियां, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूंड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए।
वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह द्रश्य देखकर देवगण चकित हो गए।
अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए।
उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो गया। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूं।
💧 गजेन्द्र की पुकार और भगवान विष्णु का आगमन
पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूं।
उसने एक कमल का फूल तोड़ा और उसे आसमान की ओर इस तरह उठाया जैसे वह उसे भगवान को अर्पित कर रहा हो। अब तक वह ग्राह द्वारा खींचे जाने से सरोवर के मध्य गहरे जल में चला गया था और उसकी सूड़ का मात्र वह भाग ही ऊपर बचा था जिसमें उसने लाल कमल-पुष्प पकड़ रखा था।
उसने अपनी शक्ति को पूरी तरह से भूलकर और अपने को पूरी तरह असहाय घोषित कर नारायण को पुकारा। भगवान समझ गए कि इसे अपनी शक्ति का मद जाता रहा और वह पूरी तरह से मेरा शरणागत है। जब नारायण ने देखा कि मेरे अतिरिक्त यह किसी को अपना पक्षक नहीं मानता तो नारायण के ‘ना’ के उच्चारण के साथ ही वह गरुण पर सवार होकर चक्र धारण किए हुए सरोवर के किनारे पहुँच गए। उन्होंने देखा कि गजेन्द्र डूबने ही वाला है।
वह शीघ्रता से गरुण से कूद पड़े। इस समय तक बहुत से देवी-देवता भी भगवान के आगमन को समझकर वहाँ उपस्थित हो गए थे। सभी के देखते-देखते भगवान ने गजराज और गजेन्द्र को एक क्षण में सरोवर से खींचकर बाहर निकाला। देवताओं ने आश्चर्य से देखा, उन्होंने सुदर्शन से इस तरह ग्राह का मुँह फाड़ दिया कि गजराज के पैर को कोई क्षति नहीं पहुँची।
ग्राह देखते-देखते तड़प कर मर गया और गजराज भगवान की कृपा-दृष्टि से पहले की तरह स्वस्थ हो गया।
🌺 गजेन्द्र की स्तुति
गजराज ने भावविभोर होकर नारायण की स्तुति की और कहा आप शरणागतों के उद्धारक हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार हो। जीव व्यर्थ में ही अहंकार में पड़ अपने को सर्व-समर्थ मान बैठता है। आपकी अपार शक्ति के सामने सभी प्राणियों की सम्मिलित शक्ति भी कुछ काम नहीं आ सकती। आप ही सभी प्राणियों के स्रष्टा, संरक्षक और संहारक हैं।
जिस समय गजेन्द्र श्रीनारायण की स्तुति कर रहा था, सरोवर किनारे उपस्थित देवता आपस में भगवान के कृपालु स्वभाव के सम्बन्ध में वार्तालाप कर रहे थे।
उनमें से एक ने ठीक ही कहा ‘जब तक अपनी शक्ति पर विश्वास करते रहो, ईश्वर की सहायता नहीं मिलती। जब अपने को सर्वथा तुच्छ समझ भगवान की शरण में जाओ तभी वह तत्काल तुम्हारी रक्षा करता है। कम-से-कम गजेन्द्र और ग्राह की इस घटना से तो यही शिक्षा मिलती है।
🔱 कथा का संदेश ( Gajendra Moksha Story from Shrimad Bhagavatam )
- ईश्वर की कृपा केवल श्रद्धा और समर्पण से मिलती है।
- अहंकार के रहते भगवान की सहायता नहीं मिलती।
- जब जीव अपनी सीमाओं को स्वीकार कर भगवान की शरण लेता है, तब ईश्वर तुरंत उसकी रक्षा करते हैं।
🌹 आध्यात्मिक सार: Gajendra Moksha
गजेन्द्र मोक्ष कथा हमें सिखाती है कि जीवन के हर संकट में भगवान को पुकारो,
चाहे शरीर शक्तिहीन हो,
पर यदि मन में श्रद्धा और विश्वास है,
तो भगवान स्वयं आपकी रक्षा के लिए उतर आते हैं।
🌸 “जब तक अपनी शक्ति पर विश्वास है, ईश्वर मौन रहता है;
जब अपना अस्तित्व भूलकर उसकी शरण लो,
तब वह स्वयं प्रकट होकर रक्षा करता है।” 🌸
🪶 निष्कर्ष; Gajendra Moksha Story from Shrimad Bhagavatam
गजेन्द्र मोक्ष केवल एक पुराणकथा नहीं, बल्कि जीवन का आध्यात्मिक सत्य है —
“सच्चा भक्त वही है जो संकट के समय भी भगवान का नाम नहीं भूलता।”
🚩 राधे राधे! जय श्रीहरि! 🚩
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