🔱 शिव तांडव स्तोत्र का परिचय
शिव तांडव स्तोत्र संस्कृत में रावण की एक प्रसिद्ध रचना है। इसकी उत्पत्ति तब हुई थी जब रावण ने कैलाश पर्वत को उठाने का प्रयास किया। अहंकार से भरे रावण को भगवान शिव ने अपने अंगूठे से पर्वत को तनिक दबाकर उसका अभिमान तोड़ा। पर्वत के नीचे रावण का हाथ दब गया, जिससे वह पीड़ा से चिल्लाने लगा और “शंकर शंकर” कहकर क्षमा याचना करने लगा।
इसी अवस्था में रावण ने भगवान शिव की स्तुति की, जो आगे चलकर शिव तांडव स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह स्तोत्र शिवजी के तांडव, उनके रूप, शक्ति, और ब्रह्मांडीय नृत्य की महिमा का गान करता है।
इस स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने रावण को ज्ञान, धन, संतान, सिद्धि और समृद्धि का वरदान दिया।
📜 श्री रावणकृतम् श्री शिव ताण्डव स्तोत्रम् (संस्कृत में हिंदी अर्थ सहित)
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम्।।1।।
जिन्होंने जटारूपी अटवी (वन)- से निकलती हुई गंगाजी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किए गए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर डमरू के डम-डम शब्दों से मण्डित प्रचंड तांडव (नृत्य) किया, वे शिवजी हमारे कल्याण का विस्तार करें।।।1।।
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनी।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम।।2।।
जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगा की चंचल तरंग-लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही है, सिर पर चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव) में मेरा निरंतर अनुराग हो।।2।।
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि।।3।।
गिरिराज किशोरी पार्वती के विलास कालोपयोगी शिरोभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनंदित हो रहा है, जिनकी निरंतर कृपादृष्टि से कठिन से कठिन आपत्ति का भी निवारण हो जाता है, ऐसे किसी दिगम्बर तत्व में मेरा मन आनंद प्राप्त करे।।3।।
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि।।4।।
जिनके जटाजूटवर्ती भुजंगमों के फणों की मणियों का फैलता हुआ पिंगल प्रभापुंज दिशारूपिणी अंगनाओं के मुख पर कुंकुम राग का अनुलेप कर रहा है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र (चादर) धारण करने से स्निग्ध वर्ण हुए उन भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे।।4।।
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठभू:।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर:।।5।।
जिनकी चरण पादुकाएं इन्द्र आदि समस्त देवताओं के (प्रणाम करते समय) मस्तकवर्ती कुसुमों की धूलि से धूसरित हो रही हैं, नागराज (शेष)-के हार से बंधी हुई जटा वाले वे भगवान् चंद्रशेखर मेरे लिए चिरस्थायिनी संपत्ति के साधक हों।।5।।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न:।।6।।
जिन्होंने ललाट वेदी पर प्रज्वलित हुई अग्नि के स्फुलिंगों के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिनको इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकर की कला से सुशोभित मुकुट वाला वह (श्रीमहादेवजी) उन्नत विशाल ललाट वाला जटिल मस्तक हमारी संपत्ति का साधक हो।।6।।
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।।7।।
जिन्होंने अपने विकराल विकराल भालपट्ट पर धक् धक् जलती हुई अग्नि में प्रचंड कामदेव को हवन कर दिया था, गिरिराज किशोरी के स्तनों पर पत्र भंग रचना करने के एकमात्र कारीगर उन भगवान त्रिलोचन में मेरी धारणा लगी रहे।।7।।
नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतम:प्रबन्धबद्धकन्धर:।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर:
कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगद्धुरन्धर:।।8।।
जिनके कंठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के समय फैलते हुए दुरूह अंधकार के समान श्यामता अंकित है; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं, वे संसार भार को धारण करने वाले चन्द्रमा [-के सम्पर्क]- से मनोहर कांति वाले भगवान गंगाधर मेरी संपत्ति का विस्तार करें।।8।।
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे।।9।।
जिनका कण्ठदेश खिले हुए नीलकमल समूह की श्याम प्रभा का अनुकरण करने वाली हरिणी की-सी छवि वाले चिह्न से सुशोभित है, जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्ष यज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी उच्छेदन (संहार) करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूं।।।9।।
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे।।10।।
जो अभिमानरहित पार्वती की कलारूप कदम्ब मंजरी के मकरन्द स्रोत की बढ़ती हुई माधुरी के पान करने वाले मधुप हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्ष यज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी अंत करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूं।।10।।
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डव: शिव:।।11।।
जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से ललाट की भयंकर अग्नि क्रमश: धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचंड तांडव हो रहा है, उन भगवान शंकर की जय हो।।11।।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयो: सुहृद्विपक्षपक्षयो:।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो:
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम्।।12।।
पत्थर और सुन्दर बिछौनों में, सांप और मुक्ता की माला में, बहुमूल्य रत्न और मिट्टी के ढेले में, मित्र या शत्रु पक्ष में, तृण अथवा कमललोचना तरुणी में, प्रजा और पृथ्वी के महाराज में समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूंगा?।।12।।
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन्।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नक:
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्।।13।।
सुन्दर ललाट वाले भगवान् चन्द्रशेखर में दत्तचित्त हो अपने कुविचारों को त्यागकर गंगाजी के तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ सिर पर हाथ जोड़ डबडबाई हुईं विह्वल आंखों से ‘शिव’ मंत्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊंगा?।।13।।
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्।।14।।
जो मनुष्य इस प्रकार से उक्त इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता रहता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुर गुरु श्री शंकरजी की अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है। वह विरुद्ध गति को नहीं प्राप्त होता; क्योंकि श्रीशिवजी का अच्छी प्रकार का चिंतन प्राणि वर्ग के मोह का नाश करने वाला है।।14।।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु:।।15।।
सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर जो रावण के गाए हुए इस शंभू-पूजन-संबंधी स्तोत्र का पाठ करता है, भगवान् शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली संपत्ति देते हैं।।15।।
🌺 शिव तांडव स्तोत्र का महत्व
- शिव तांडव स्तोत्र का नियमित पाठ करने से मन, बुद्धि और शरीर की शुद्धि होती है।
- यह स्तोत्र भय, बाधा, रोग, ऋण और पापों का नाश करता है।
- इस स्तोत्र के माध्यम से भक्त शिव के तांडव स्वरूप को ध्यान में रखते हैं — जो सृष्टि, पालन और संहार के प्रतीक हैं।
- यह स्तुति आत्मिक शक्ति और भक्ति का अद्भुत संयोग है।
🪶 पाठ का फल
जो भक्त शिव तांडव स्तोत्र का पाठ प्रातःकाल या प्रदोष काल (संध्या समय) में करता है, वह धन, वैभव और सौभाग्य प्राप्त करता है। भगवान शिव उस व्यक्ति को स्थायी सुख, सफलता और आध्यात्मिक आनंद का वरदान देते हैं।
📖 संदर्भ
श्री शिवस्तोत्ररत्नाकर – शिव तांडव स्तोत्र (गीता प्रेस, गोरखपुर)
🔔 निष्कर्ष
शिव तांडव स्तोत्र केवल एक स्तुति नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव है। यह वह भाव है जिसमें भक्ति, ज्ञान, शक्ति, और समर्पण एक साथ प्रवाहित होते हैं। जो इसे श्रद्धा से पढ़ता है, उसका जीवन दिव्यता से आलोकित हो उठता है।