(बृहन्नारदीयपुराण, पूर्वभाग, अध्याय ८९, श्लोक १०–२२)
👉 यह स्तोत्र देवी ललिता त्रिपुरसुंदरी की स्तुति में है, जिसमें मातृकाओं, अक्षरशक्तियों और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के रूप में देवी की महिमा का वर्णन किया गया है।
ललिता देवी को यहां सृष्टि, शक्ति और शब्द ब्रह्म की अधिष्ठात्री बताया गया है।
गणेशग्रहनक्षत्रयोगिनीराशिरूपिणीम् ।
देवीं मन्त्रमयीं नौमि मातृकापीठरूपिणीम् ॥ १०॥
अर्थ —
मैं उस देवी को नमस्कार करता हूँ जो गणेश, ग्रह, नक्षत्र, योगिनी और राशियों के रूप में विराजमान हैं।
जो स्वयं मन्त्रस्वरूपा हैं, और जिनका शरीर मातृकाओं के पवित्र पीठों के रूप में व्याप्त है।
(देवी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की गति देनेवाली मन्त्र-ऊर्जा हैं।)
प्रणमामि महादेवीं मातृकां परमेश्वरीम् ।
कालहृल्लोहलोल्लोहकलानाशनकारिणीम् ॥ ११॥
अर्थ —
मैं परमेश्वरी महादेवी मातृका को प्रणाम करता हूँ,
जो काल, आकर्षण, विकर्षण और कलाओं के नाश की भी कारण हैं।
(देवी कालचक्र से परे हैं — वे सृष्टि और संहार दोनों की अधिष्ठात्री हैं।)
यदक्षरैकमात्रेऽपि संसिद्धे स्पर्द्धते नरः ।
रवितार्क्ष्येन्दुकन्दर्पैः शङ्करानलविष्णुभिः ॥ १२॥
अर्थ —
जिसके एक अक्षर की सिद्धि से ही मनुष्य सूर्य, चन्द्र, अग्नि, विष्णु, शंकर और कामदेव के समान तेजस्वी हो उठता है,
उस देवी की मैं वंदना करता हूँ।
यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं भुवनत्रयम् ।
वन्दे सर्वेश्वरीं देवीं महाश्रीसिद्धमातृकाम् ॥ १३॥
अर्थ —
जिसके अक्षरों की चाँदनी से तीनों लोक प्रकाशित हैं,
उस सर्वेश्वरी, महाश्री, सिद्धमातृका देवी को नमस्कार।
यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेतज्जगत्त्रयम् ।
ब्रह्याण्डादिकटाहान्तं तां वन्दे सिद्धमातृकाम् ॥ १४॥
अर्थ —
जिसके अक्षररूप महान् सूत्र में सम्पूर्ण जगत्त्रय — ब्रह्माण्ड से लेकर अणु तक — पिरोया गया है,
उस सिद्धमातृका देवी की मैं वंदना करता हूँ।
यदेकादशमाधारं बीजं कोणत्रयोद्भवम् ।
ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं जगदद्यापि दृश्यते ॥ १५॥
अर्थ —
जिसका त्रिकोणात्मक बीज सम्पूर्ण जगत का मूलाधार है,
उस देवी को नमस्कार।
अकचादिटतोन्नद्धपयशाक्षरवर्गिणीम् ।
ज्येष्ठाङ्गबाहुहृत्कण्ठकटिपादनिवासिनीम् ॥ १६॥
अर्थ —
जो ‘अ’ से ‘क्ष’ तक के अक्षरसमूह में व्याप्त हैं,
और शरीर के प्रत्येक अंग में निवास करती हैं — ऐसी मातृका देवी को प्रणाम।
नौमीकाराक्षरोद्धारां सारात्सारां परात्पराम् ।
प्रणमामि महादेवीं परमानन्दरूपिणीम् ॥ १७॥
अर्थ —
जो काराक्षर (क-क्ष) से परे, सार की भी सार और परमानन्द स्वरूपा हैं — उन्हें प्रणाम।
अथापि यस्या जानन्ति न मनागपि देवताः ।
केयं कस्मात्क्व केनेति सरूपारूपभावनाम् ॥ १८॥
अर्थ —
यह कौन हैं, कहाँ हैं, कैसी हैं — इसका ज्ञान देवता भी नहीं जानते।
वे रूप और अरूप दोनों से परे हैं।
वन्दे तामहमक्षय्यां क्षकाराक्षररूपिणीम् ।
देवीं कुलकलोल्लोलप्रोल्लसन्तीं शिवां पराम् ॥ १९॥
अर्थ —
जो ‘क्ष’ अक्षर के रूप में विद्यमान, अविनाशी और शिवस्वरूपा हैं,
जो शक्ति और चेतना की लहरियों में प्रफुल्लित हैं — उन्हें नमस्कार।
वर्गानुक्रमयोगेन यस्याख्योमाष्टकं स्थितम् ।
वन्दे तामष्टवर्गोत्थमहासिद्ध्यादिकेश्वरीम् ॥ २०॥
अर्थ —
जिनके आठ वर्ण-वर्गों से यह सम्पूर्ण ध्वनि-विश्व बना,
उनसे उत्पन्न सभी सिद्धियाँ जिनकी अधीन हैं — ऐसी देवी को नमस्कार।
कामपूर्णजकाराख्यसुपीठान्तर्न्निवासिनीम् ।
चतुराज्ञाकोशभूतां नौमि श्रीत्रिपुरामहम् ॥ २१॥
अर्थ —
जो कामपूर्ण ‘ज’ अक्षर के सुपीठ में निवास करती हैं,
जो चतुर्विध आज्ञाकोश की अधिष्ठात्री हैं — उस श्रीत्रिपुरा देवी को नमस्कार।
एतत्स्तोत्रं तु नित्यानां यः पठेत्सुसमाहितः ।
पूजादौ तस्य सर्वास्ता वरदाः स्युर्न संशयः ॥ २२॥
अर्थ —
जो इस स्तोत्र को एकाग्रचित्त होकर पढ़ता है,
उसकी पूजा में सभी देवियाँ प्रसन्न होकर वर देती हैं — इसमें कोई संशय नहीं।
🌺 निष्कर्ष
ललितादेवीस्तोत्रम् केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि “मातृका शक्ति” और “अक्षर ब्रह्म” की दिव्य साधना है।
यह पढ़ने वाला व्यक्ति आत्मज्ञान, वाणी सिद्धि और दिव्य तेज प्राप्त करता है।
📖 इस स्तोत्र का नियमित पाठ करें —
देवी ललिता त्रिपुरसुंदरी आपकी वाणी, बुद्धि और जीवन में चैतन्य का संचार करें।


