🕉️ भूमिका (Introduction)
देवी महालक्ष्मी वैभव, कृपा और शुद्ध प्रेम की अधिष्ठात्री हैं।
“श्री कनकवर्षिणी लक्ष्मी स्तवराजः” श्री वेदान्तदेशिक द्वारा रचित एक अनुपम स्तोत्र है,
जिसमें भगवान विष्णु की अर्धांगिनी देवी लक्ष्मी के अनंत गुणों और दया का अद्भुत वर्णन किया गया है। (Kanakavarsini Lakshmi Stotra in Hindi)
यह स्तोत्र धन, सुख, सौभाग्य, मोक्ष और मनोवांछित सिद्धियों का वरदान देने वाला माना गया है।
जो भक्त इसे श्रद्धा और शुद्ध भाव से पाठ करता है, उसके जीवन में अकंटक समृद्धि, मंगलमय शांति, और अडिग भक्ति का प्रकाश होता है।
🌸 श्री कनकवर्षिणी लक्ष्मी स्तवराजः
श्रीगणेशाय नमः ।
श्री मते रामानुजाय नमः ।
श्रीमान्वेङ्कटनाथार्यः कवितार्किककेसरी ।
वेदान्ताचार्यवर्यो सन्निधत्तां सदा हृदि ॥
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ईशानां जगतोऽस्य वेङ्कटपतेर्विष्णोः पर प्रेयसीं
त्वद्वक्षस्थलनित्यवासरसिकां तत्क्षान्तिसंवर्द्वितीम् ।
पद्मालङ्कृतपाणिपल्लवयुतां पद्मासनस्थां श्रियं
वात्सल्यादिगुणोज्ज्वलां भगवती वन्दे जगन्मातरम् ॥
अर्थ –
श्रीगणेश और श्रीरामानुज को प्रणाम। कविताओं और तर्कों में सिंह, वेदान्ताचार्य श्री वेंकटनाथ मेरे हृदय में सदैव विराजमान हों।
मैं श्रीलक्ष्मी का वंदन करता हूँ, जो विष्णु की प्रेयसी हैं, उनके वक्षःस्थल पर रहती हैं, पद्मासन पर स्थित हैं और वात्सल्य आदि गुणों से शोभित हैं।
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मानातीतप्रथितविभवां मङ्गलं मङ्गलानां वक्षःपीठं
मधुविजयिनो भूषयन्तीं स्वकान्त्या ।
प्रत्यक्षानुश्रविकमहिमप्रार्थिनीनां प्रजानां
श्रेयोमूर्तिं श्रियमशरणस्त्वां शरण्यां प्रपद्ये ॥ १॥
अर्थ –
आप असीम वैभव से युक्त हैं, समस्त मंगलों में सर्वोत्तम हैं।
आप विष्णु के वक्षःस्थल को अपनी कान्ति से शोभित करती हैं।
आपकी महिमा प्रत्यक्ष और श्रुतियों में प्रसिद्ध है।
हे कल्याणमूर्ति! मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।
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आविर्भावः कलशजलधावध्वरे वाऽपि यस्याः
स्थानं यस्याः सरसिजवनं विष्णुवक्षःस्थलं वा ।
भूमा यस्या भुवनमखिलं देवि दिव्यं पदं वा
स्तोकप्रज्ञैरनवधिगुणा स्तूयसे सा कथं त्वम् ॥ २॥
अर्थ –
आपका प्रादुर्भाव यज्ञों के कलश में जल से होता है।
आपका स्थान कमलवन या विष्णु का वक्षःस्थल है।
आपकी सीमा सम्पूर्ण जगत भी नहीं है।
ऐसी अनंत गुणों से युक्त आप का स्तवन अल्पबुद्धि मनुष्य कैसे कर सकता है?
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स्तोतव्यत्वं दिशति भवती देहिभिः स्तूयमाना
तामेव त्वामनितरगतिः स्तोतुमाशंसमानः ।
सिद्धारम्भः सकलभुवनश्लाघनीयो भवेयं
सेवापेक्षा तव चरणयोः श्रेयसे कस्य न स्यात् ॥ ३॥
अर्थ –
हे माता! जब लोग आपकी स्तुति करते हैं, आप ही उन्हें स्तवन की योग्यता देती हैं।
मैं भी आपको स्तुति करने की इच्छा करता हूँ।
आपके चरणों की सेवा से महान् आरंभ सिद्ध होता है।
कौन है जो आपके चरणों की सेवा से वंचित रहना चाहेगा?
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यत्सङ्कल्पाद्भवति कमले यत्र देहिन्यमीषां
जन्मस्थेमप्रलयरचना जङ्गमाजङ्गमानाम् ।
तत्कल्याणं किमपि यमिनामेकलक्ष्यं समाधौ
पूर्णं तेजः स्फुरति भवतीपादलाक्षारसाङ्कम् ॥ ४॥
अर्थ –
आपके संकल्प से समस्त प्राणियों का जन्म, पालन और प्रलय होता है।
वह परम कल्याण, जो समाधि में योगियों का लक्ष्य है,
वही तेज आपके चरणों की लाली से प्रकाशित होता है।
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निष्प्रत्यूहप्रणयघटितं देवि नित्यानपायं विष्णुस्त्वं
चेत्यनवधिगुणं द्वन्द्वमन्योन्यलक्ष्यम् ।
शेषश्चित्तं विमलमनसां मौलयश्च श्रुतीनां
सम्पद्यन्ते विहरणविधौ यस्य शय्याविशेषाः ॥ ५॥
अर्थ –
हे देवी! आप और विष्णु का प्रेम अविच्छिन्न, शाश्वत और अपराजेय है।
आप दोनों का युगल अनंत गुणों से युक्त है, जिसे मनुष्य नहीं समझ सकता।
श्रुतियाँ और संतों के मन इस युगल को सर्वोच्च मानते हैं।
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उद्देश्यत्वं जननि भजतोरूज्झितोपाधिगन्धं
प्रत्यग्रूपे हविषि युवयोरेकशेषित्वयोगात् ।
पद्मे पत्युस्तव च निगमैर्नित्यमन्विष्यमाणो
नावच्छेदं भजति महिमा नर्तयन मानसं नः ॥ ६॥
अर्थ –
हे जननी! जब हम यज्ञ में शुद्ध हवि अर्पण करते हैं,
तो उसमें आपका और आपके पति का ही स्वीकार होता है।
आप दोनों का वैभव वेदों द्वारा सदा खोजा जाता है,
फिर भी उसकी कोई सीमा नहीं।
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पश्यन्तीषु श्रुतिषु परितः सूरिवृन्देन सार्धं
मध्येकृत्य त्रिगुणफलकं निर्मितस्थानभेदम् ।
विश्वाधीशप्रणयिनी सदा विभ्रमद्यूतवृत्तौ
ब्रह्मेशाद्या दधति युवयोरक्षशारप्रचारम् ॥ ७॥
अर्थ –
श्रुतियाँ आपको देखती हैं और आपके साथ-साथ आपके प्रभु को भी,
आप दोनों सदा त्रिगुणात्मक सृष्टि के मध्य स्थित हैं।
आपका और विष्णु का प्रेममय खेल निरंतर चलता रहता है,
जहाँ ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता साक्षी होते हैं।
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अस्येशाना त्वमसि जगतः संश्रयन्ती मुकुन्दं
लक्ष्मीः पद्मा जलधितनया विष्णुपत्नीन्दिरेति ।
यन्नामानि श्रुतिपरिपणान्येवमावर्तयन्तो
नावर्तन्ते दुरितपवनप्रेरिते जन्मचक्रे ॥ ८॥
अर्थ –
हे ईश्वरी! आप ही इस जगत की अधिष्ठात्री हैं,
आप लक्ष्मी हैं, पद्मा हैं, समुद्रकन्या हैं, विष्णुपत्नी हैं।
जो आपके इन नामों का जप करते हैं,
वे पापरूपी वायु से प्रेरित जन्मचक्र में नहीं फँसते।
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त्वामेवाहुः कतिचिदपरे त्वत्प्रियं लोकनाथं
किं तैरन्तःकलहमलिनैः किञ्चिदुत्तीर्य मग्नैः ।
त्वत्सम्प्रीत्यै विहरति हरौ सम्मुखीनां श्रुतीनां
भावारूढौ भगवति युवां दम्पती दैवतं नः ॥ ९॥
अर्थ –
कुछ लोग केवल आपको सर्वोच्च मानते हैं,
कुछ केवल आपके पति विष्णु को ही सर्वोच्च मानते हैं।
परंतु ये मतभेद अंतःकलह से युक्त हैं।
हमारे लिए तो आप दोनों दम्पति ही एक परम दैवत हैं।
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आपन्नार्तिप्रशमनविधौ बद्धदीक्षस्य विष्णोराचख्युस्त्वां
प्रियसहचरीमैकमत्योपपन्नाम् ।
प्रादुर्भावैरपि समतनुः प्राध्वमन्वीयसे त्वं
दूरोत्क्षिप्तैरिव मधुरता दुग्धराशेस्तरङ्गे ॥ १०॥
अर्थ –
जब विष्णु संसार के संकट निवारण में संलग्न होते हैं,
तब आप उनकी प्रिय सहचरी होकर उनके साथ रहती हैं।
आप अपनी विभिन्न अवतारों द्वारा सदा उनके साथ होती हैं,
जैसे दूध के समुद्र में उठती हुई मधुरता।
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धत्ते शोभां हरिमरकते तावकी मूर्तिराद्या
तन्वी तुंगस्तनभरनता तप्तजाम्बूनदाभा ।
यस्यां गच्छन्त्युदयविलयैर्नित्यमानन्दसिन्धा-
विच्छावेगोल्लसितलहरीविभ्रमं व्यक्तयस्ते ॥ ११॥
अर्थ –
आपकी प्रथम मूर्ति हरित मणि के समान शोभायुक्त है।
आपका शरीर पतला है, उच्च स्तनों के भार से झुका हुआ है,
और वह तप्त सोने की आभा से युक्त है।
आपकी अंगरचना निरंतर आनंद के समुद्र में उठती-गिरती तरंगों के समान प्रतीत होती है।
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आसंसारं विततमखिलं वाङ्मयं यद्विभूतिर्यद्भ्रूभङ्गात्कुसुमधनुषः किङ्करो मेरूधन्वा ।
यस्यां नित्यं नयनशतकैरेकलक्ष्यो महेन्द्रः
पद्मे तासां परिणतिरसौ भावलेशैस्त्वदीयैः ॥ १२॥
अर्थ –
आपकी विभूति में सारा वाङ्मय और संसार समाहित है।
कामदेव भी आपका सेवक है, और मेरु उसका धनुष है।
स्वयं इन्द्र भी आपकी ओर नित्य दृष्टि लगाए रहते हैं।
हे पद्मे! यह सब आपकी कृपा की एक झलक मात्र है।
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अग्रे भर्तुः सरसिजमये भद्रपीठे
निषण्णामम्भोराशेरधिगतसुधासम्प्लवादुत्थितां त्वाम् ।
पुष्पासारस्थगितभुवनैः पुष्कलावर्तकाद्यैः
क्लृप्तारम्भाः कनककलशैरभ्यषिञ्चन्गजेन्द्राः ॥ १३॥
अर्थ –
हे देवी! आप अपने पति श्रीविष्णु के सामने कमल के सिंहासन पर विराजमान हैं।
आप समुद्र से प्रकट हुईं और अमृतसिंधु में स्नान कर अलंकृत हुईं।
तब गजेन्द्रों ने स्वर्ण कलशों से पुष्पों की वर्षा के मध्य आपका अभिषेक किया।
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आलोक्य त्वाममृतसहजे विष्णुवक्षःस्थलस्थां
शापाक्रान्ताः शरणमगमन्सावरोधाः सुरेन्द्राः ।
लब्ध्वा भूयस्त्रिभुवनमिदं लक्षितं त्वत्कटाक्षैः
सर्वाकारस्थिरसमुदयां सम्पदं निर्विशन्ति ॥ १४॥
अर्थ –
जब देवगण शापग्रस्त होकर संकट में पड़े,
उन्होंने आपको विष्णु के वक्षःस्थल पर विराजमान देखा और शरण ली।
आपकी कृपादृष्टि पाते ही उन्होंने पुनः तीनों लोकों के स्थिर ऐश्वर्य को प्राप्त किया।
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आर्तत्राणत्रव्रतिभिरमृतासारनीलाम्बुवाहै-
रम्भोजानामुषसि मिषतामन्तरङ्गैरपाङ्गै ।
यस्यां यस्यां दिशि विहरते देवि दृष्टिस्त्वदीया
तस्यां तस्यामहमहमिकां तन्वते सम्पदोघाः ॥ १५॥
अर्थ –
हे देवी! जब आप अपनी दृष्टि से किसी दिशा में देखती हैं,
तो वहाँ जहाँ भी आपकी दृष्टि जाती है, वहाँ अपार सम्पत्ति, वैभव और सुख उत्पन्न होते हैं।
आपके करुणामय और दयालु स्वरूप की कृपा से,
संसार के दुखों से ग्रस्त लोग सुरक्षित और संपन्न हो जाते हैं।
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योगारम्भत्वरितमनसो युष्मदैकान्त्ययुक्तं धर्मं
प्राप्तुं प्रथममिह ये धारयन्तेऽधना याम् ।
तेषां भूमेर्धनपतिगृहादम्बुधेर्वा प्रकामं धारा
निर्यान्त्यधिकमधिकं वाञ्छितानां वसूनाम् ॥ १६॥
अर्थ–
हे माँ! आपकी दया से, जो लोग आपकी ओर झुकते हैं:
वे सभी कठिनाइयों और शत्रुओं को पार कर पाते हैं।
पाप, बाधाएँ और अज्ञान को छोड़ देते हैं।
आपकी कृपा से वे अपने जीवन में स्थिर और सुरक्षित रहते हैं।आपकी दया और शुद्ध हृदय से उन्हें शांति और सुरक्षा मिलती है।
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श्रेयस्कामा यमलनिलये चित्रमाम्नायवाचां
चूडापीडं तव पदयुगं चेतसा धारयन्तः ।
छत्रच्छायासुभगशिरसश्चामरस्मेरपार्श्वाः
श्लाघाशब्दश्रवणमुदिताः स्रग्विणः सञ्चरन्ति ॥ १७॥
अर्थ –
जो लोग मुक्ति की आकांक्षा रखते हैं और
आपके चरणकमलों को अपने मन में धारण करते हैं,
उनके सिर पर छत्र की छाया शोभायमान होती है,
चामर उनके पार्श्व में लहराते हैं,
वे पुष्पमालाओं से विभूषित होकर
प्रशंसा के स्वर सुनते हुए गौरव के साथ विचरण करते हैं।
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ऊरीकर्तुं कुशलमखिलं जेतुमादीनरातीन्
दूरीकर्तुं दुरितनिवहं त्यक्तुमाद्यामविद्याम् ।
अम्ब स्तम्बावधिकजननग्रामसीमान्तरेखामालम्बन्ते
विमलमनसो विष्णुकान्ते दया ते ॥ १८॥
अर्थ –
हे अम्ब! आपकी कृपा का सहारा लेकर
शुद्ध मन वाले लोग संपूर्ण कल्याण को प्राप्त करते हैं,
शत्रुओं पर विजय पाते हैं,
पापसमूह का नाश करते हैं और
अज्ञान को त्य
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जाताकांक्षा जननि युवयोरेकसेवाधिकारे
मायालीढं विभवमखिलं मन्यमानास्तृणाय ।
प्रीत्यै विष्णोस्तव च कृतिनः प्रीतिमन्तो भजन्ते
वेलाभङ्गप्रशमनफलं वैदिकं धर्मसेतुम् ॥ १९॥
अर्थ –
हे जननि! जो लोग आप दोनों की एकनिष्ठ सेवा का अधिकार चाहते हैं,
वे संसार के समस्त मायामय वैभव को तिनके के समान तुच्छ मानते हैं।
वे विष्णु और आपके प्रेम के लिए वैदिक धर्म का पालन करते हैं,
जो समुद्र की बाढ़ को रोकने वाले सेतु के समान पापों का नाश करता है।
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श्रीः श्रीशं श्रितकमलया शेखरीकृत्य सेव्यं
क्षीराब्धिं शयनतलपाटीमिव प्राप्य नित्ये ।
मुक्तानां त्वत्करसरसिजस्फारितामोदवात-
व्याप्तं स्थानं विहरणसुखं कल्पयत्येव लक्ष्मीः ॥ २०॥
अर्थ –
हे लक्ष्मी! आप श्रीहरि को अपने आश्रय रूप कमल के साथ शोभायमान करती हैं।
आप क्षीरसागर को शयनपाटी के समान पाकर स्थिर हो गई हैं।
आपके करकमलों से फैली सुगंध से युक्त वह स्थान
मुक्तजनों के विहार के लिए सुखमय हो जाता है।
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सानुप्रासप्रकटितदयैः सान्द्रवात्सल्यदिग्धैरम्ब
स्निग्धैरमृतलहरीलब्धसब्रह्मचर्यैः ।
घर्मे तापत्रयविरचिते गाढतप्तं क्षणं
मामाकिञ्चन्यग्लपितमनधैराद्रियेथाः कटाक्षैः ॥ २१॥
अर्थ –
हे अम्ब! आपके करुणा से युक्त कटाक्ष,
घने वात्सल्य से सिक्त और अमृतलहरी से युक्त हैं।
संसार रूपी तीव्र ताप से तप्त हुए मुझे,
जो दीन और असहाय है,
आप अपनी दयाभरी दृष्टि से क्षणभर के लिए ही सही,
शीतलता प्रदान करें।
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सम्पद्यन्ते भवभयतमीभानवस्त्वत्प्रसादाद्भावाः
सर्वे भगवति हरौ भक्तिमुद्वेलयन्तः ।
याचे किं त्वामहमिह यतः शीतलोदारशीला
भूयो भूयो दिशसि महतां मङ्गलानां प्रबन्धान् ॥ २२॥
अर्थ –
आपकी कृपा से भवभय रूपी अंधकार का नाश करने वाले
सूर्य के समान ज्ञान उत्पन्न होते हैं,
जो भगवान हरि के प्रति गहन भक्ति को जागृत करते हैं।
मैं आपसे क्या माँगूँ?
क्योंकि आप तो स्वभाव से ही शीतल, उदार और कल्याणदायिनी हैं,
जो बार-बार महान् मंगल प्रदान करती हैं।
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माता देवि त्वमसि भगवान्वासुदेवः पिता मे
जातः सोऽहं जननि युवयोरेकलक्ष्यं दयायाः ।
दत्तो युष्मत्परिजनतया देशिकैरप्यतस्त्वं किं ते
भूयः प्रियमिति किल स्मेरवक्रा विभासि ॥ २३॥
अर्थ –
हे देवी! आप मेरी माता हैं, और भगवान वासुदेव मेरे पिता।
मैं तो आप दोनों की दया का एकमात्र पात्र हूँ।
आचार्यों ने मुझे आप दोनों का सेवक बना दिया है।
फिर भी, हे जननि! आप मुस्कुराकर कहती हैं –
“अब और क्या चाहती हो, जो तुम्हें प्रिय हो?”
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कल्याणानामविकलनिधिः काऽपि कारुण्यसीमा
नित्यामोदा निगमवचसां मौलिमन्दारमाला ।
सम्पद्दिव्यः मधुविजयिनः सन्निधत्तां सदा
मे सैषा देवी सकलभुवनप्रार्थनाकामधेनुः ॥ २४॥
अर्थ –
आप कल्याण की अखंड निधि हैं,
करुणा की चरम सीमा हैं,
सदैव आनन्दमयी हैं,
और वेदवचनों की मन्दारमाला के समान शोभायुक्त हैं।
हे देवी! आप सम्पूर्ण जगत की कामधेनु स्वरूप हैं,
आप सदा मेरे समीप रहें।
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उपचितगुरुभक्तेरुत्थितं वेङ्कटेशात्कलि-
कलुषनिवृत्त्यै कल्प्यमानं प्रजानाम् ।
सरसिजनिलयायाः स्तोत्रमेतत्पठन्तः
सकलकुशलसीमा सार्वभौमा भवन्ति ॥ २५॥
अर्थ –
वे लोग जो वेङ्कटेश के प्रति गहन भक्ति से प्रेरित होकर,
कलियुग के दोषों को दूर करने के लिए
इस सरसिजनिवासिनी (लक्ष्मी) का यह स्तोत्र पढ़ते हैं,
वे समस्त कल्याण की सीमा को प्राप्त कर
संसार में सार्वभौम हो जाते हैं।
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🌼 महत्व एवं लाभ (Benefits of Chanting Kanakavarsini Lakshmi Stotra)
- यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी की कृपा, सौंदर्य और समृद्धि का आवाहन करता है।
- दैनिक पाठ से धन, सौभाग्य, वैभव और संतान-सुख की प्राप्ति होती है।
- यह मन के भय, चिंता और नकारात्मकता को दूर करता है।
- वैदिक परंपरा में इसे “स्तवराज” कहा गया है — अर्थात स्तोत्रों का राजा, क्योंकि इसमें ज्ञान, प्रेम और कृपा तीनों का समावेश है।
- यह कलियुग में महालक्ष्मी की उपासना का सर्वोत्तम माध्यम माना जाता है।
🪔 पाठ विधि (How to Recite the Stotra)
- स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके देवी लक्ष्मी की प्रतिमा या चित्र के समक्ष बैठें।
- “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः” मंत्र से ध्यान करें।
- तत्पश्चात पूर्ण श्रद्धा से कनकवर्षिणी लक्ष्मी स्तवराजः का पाठ करें।
- अंत में “श्री लक्ष्मी-नारायणाय नमः” कहकर नमस्कार करें।
🌹 निष्कर्ष (Conclusion): Kanakavarsini Lakshmi Stotra in Hindi
“श्री कनकवर्षिणी लक्ष्मी स्तवराजः” केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि दिव्य अनुग्रह का द्वार है।
यह भक्त को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर, आत्मिक समृद्धि की ओर ले जाता है।
जो इसे श्रद्धा, प्रेम और नियमितता से पढ़ता है, उस पर माँ लक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहती हैं,
और जीवन में कनकवर्ष — अर्थात स्वर्णिम समृद्धि — का वर्षा करती हैं।
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