Ganesh Ji

त्रेतायुग में भगवान गणेश का मयूरेश्वर अवतार – पूरी कथा

भगवान गणेशजी को हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता, प्रथम पूज्य और सिद्धियों के दाता कहा गया है। उन्होंने समय-समय पर अवतार लेकर धर्म की रक्षा और अधर्म का विनाश किया। त्रेतायुग में गणेशजी ने मयूरेश्वर अवतार धारण किया और महादैत्य सिंधु का वध कर तीनों लोकों को अत्याचार से मुक्त किया।

भगवान् मयूरेश्वरका अवतार

त्रेतायुगकी बात है। मैथिलदेशमें प्रसिद्ध गण्डकी नगरके सद्धर्मपरायण नरेश चक्रपाणिके पुत्र सिन्धुके क्रूरतम शासनसे धराधामपर धर्मकी मर्यादाका अतिक्रमण हो रहा था। उसी समय भगवान् गणेशने ‘मयूरेश्वर’ के रूपमें लीला-विग्रह धारणकर विविध लीलाएँ कीं और महाबली सिन्धुके अत्याचारोंसे त्रैलोक्यका रक्षण करते हुए पुनः विधाताके शाश्वत नियमोंकी प्रतिष्ठापना की। अत्यन्त शक्तिशाली सिन्धुके दो सहस्र वर्षकी उग्र तपस्यासे सहस्रांशु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे अभीष्ट वरके रूपमें अमृतपात्र प्रदान करते हुए कहा- ‘जबतक यह अमृतपात्र तुम्हारे कण्ठमें रहेगा, तबतक तुम्हें देवता, नाग, मनुष्य, पशु एवं पक्षी आदि कोई भी दिन, रात, प्रातः तथा सायं किसी भी समय मार न सकेगा।’

अब तो वर प्राप्तकर वह अत्यन्त मदोन्मत्त हो गया। अकारण ही सत्यधर्मके मार्गपर चलनेवालोंका तथा निरपराध नर-नारियों एवं अबोध शिशुओंकी हत्या करनेमें गर्वका अनुभव करने लगा । सम्पूर्ण धरित्री रक्त-रंजित सी हो गयी। इसके बाद उसने पातालमें भी अपना आधिपत्य जमा लिया और ससैन्य स्वर्गलोकपर चढ़ाई करके वहाँ शचीपति इन्द्रादि देवताओंको पराभूतकर तथा विष्णुको बंदी बनाकर सर्वत्र हाहाकार मचा दिया। चिन्तित देवताओंने इस विकट कष्टसे मुक्ति पानेके लिये अपने गुरु बृहस्पतिसे निवेदन किया। सुरगुरुने कहा – ‘परम प्रभु विनायक स्वल्प पूजासे ही शीघ्र प्रसन्न होनेवाले हैं; अतः आप लोग असुरसंहारक, दशभुज विनायककी स्तुति प्रार्थना करें।

ऐसा करनेसे वे करुणासिन्धु अवतरित होकर असुरोंका वधकर धराका भार हलका करेंगे और आप लोगोंका अपहृत पद पुनः प्रदान करेंगे।’ प्रसन्नतापूर्वक देवताओंने भक्तिपूर्वक उनका स्तवन प्रारम्भ कर दिया। देवताओंकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर परमप्रभु विनायक प्रकट हो गये और कहने लगे-‘जिस प्रकार मैंने महामुनि कश्यपकी परम साध्वी पत्नी अदितिके गर्भसे जन्म लिया था, उसी प्रकार शिवप्रिया माता पार्वतीके यहाँ अवतरित होकर महादैत्य सिन्धुका वध करूँगा और आप सबको अपना-अपना पद प्रदान करूँगा। इस अवतारमें मेरा नाम ‘मयूरेश्वर’ प्रसिद्ध होगा’- इतना कहकर परम प्रभु विनायक अन्तर्धान हो गये। देवगणोंके तो हर्षका ठिकाना न रहा। एक बार माता पार्वती देवाधिदेव भगवान् शंकरको तपश्चरणमें निरत देख उनसे कहने लगीं- ‘प्रभो! आप तो स्वयं सृष्टिके पालन एवं संहारकर्ता तथा अनन्तानन्त-कोटि ब्रह्माण्डोंके नायक हैं, फिर आप किसे प्रसन्न करनेके लिये तप करते हैं’? शूलपाणिने उत्तर दिया- ‘निष्पापे ! मैं उन अनन्त महाप्रभुकी प्रसन्नताके लिये तप करता हूँ, जिनकी शक्ति, गुण और कर्म सभी अनन्त हैं।

अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड उनके प्रत्येक रोममें निवास करते हैं और समस्त गुणोंके ईश होनेके कारण वे ‘गुणेश’ कहे जाते हैं। मैं उन्हीं ‘गुणेश’ का निरन्तर ध्यान करता रहता हूँ।’ यह सुनकर गौरीने जिज्ञासा प्रकट की- ‘प्रभो! वे परम प्रभु मुझपर कैसे प्रसन्न होंगे, मुझे उनका प्रत्यक्ष दर्शन किस प्रकार हो सकेगा ?’ भगवान् शंकरने कहा- ‘हे प्रिये! निष्ठापूर्वक किये गये आराधन तथा तपश्चरणसे ही उनका दर्शन सुलभ हो सकेगा। इसके लिये तुम्हें बारह वर्षोंतक गणेशके एकाक्षरी मन्त्रका जप करना होगा।’ जगन्माता पार्वती भगवान् शंकरसे उपदिष्ट उस एकाक्षरी गणेशमन्त्र (गं)-का जप करने लगीं। कुछ ही समय बाद भाद्रपद मासकी शुक्ल-पक्षीय चतुर्थी तिथि आयी। सभी ग्रह-नक्षत्र शुभस्थ एवं मङ्गलमय योगमें विराजमान थे।

उसी समय विराट्रूपमें पार्वतीके सम्मुख भगवान् गणेशका अवतरण हुआ। इस रूपसे चकित-थकित होती हुई तपस्विनी पार्वतीने कहा- ‘प्रभो! मुझे अपने पुत्र-रूपका दर्शन कराइये।’ इतना सुनना था कि सर्वसमर्थ प्रभु तत्काल स्फटिकमणितुल्य षड्भुज दिव्य विग्रहधारी शिशुरूपमें क्रीडा करने लगे। उनकी देहकी कान्ति अद्भुत लावण्ययुक्त एवं प्रभासम्पन्न थी। उनका वक्षःस्थल विशाल था। सभी अंग पूर्णतः शुभ चिह्नोंसे अलंकृत थे। दिव्य शोभासम्पन्न यह विग्रह ही ‘मयूरेश्वर’ रूपमें साक्षात् प्रकट हुआ था। मयूरेशके आविर्भावसे ही प्रकृतिमात्र आनन्दविभोर हो उठी। आकाशस्थ देवगण पुष्प वर्षण करने लगे। आविर्भावके समयसे ही सर्वविघ्नहारी शिवा-पुत्रकी दिव्य लीलाएँ प्रारम्भ हो गयी थीं। एक दिनकी बात है। समस्त ऋषियोंके अन्यतम प्रीतिभाजन हेरम्ब क्रीडा-मग्र थे, सहसा गृध्ररूपधारी एक भयानक असुरने उन्हें अपनी चोंचमें पकड़ लिया और बहुत ऊँचे आकाशमें उड़ गया।

जब पार्वतीने अपने प्राणप्रिय बालकको आकाशमें उस विशाल गृध्रके मुखमें देखा तो सिर धुन-धुनकर करुण विलाप करने लगीं। सर्वात्मा हेरम्बने माताकी व्याकुलता देखकर मुष्टि-प्रहार मात्रसे ही गृध्रासुरका वध कर दिया। चीत्कार करता हुआ वह विशालकाय असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बाल भगवान् मयूरेश उस असुरके साथ ही नीचे आये थे, परंतु वे सर्वथा सुरक्षित थे, उन्हें खरोंचतक नहीं लगी थी। माता पार्वतीने दौड़कर बच्चेको उठा लिया और देवताओंकी मिन्नतें करती हुई दुग्धपान कराने लगीं। इसी तरह एक दिन माता पार्वती जब उन्हें पालनेमें लिटाकर लोरी सुना रही थीं, उसी समय क्षेम और कुशल नामक दो भयानक असुर वहाँ आकर बालकको मारनेका प्रयत्न करने लगे, पार्वती अभी कुछ समझ पातीं तबतक बालकने अपने पदाघातसे ही उन राक्षसोंका हृदय विदीर्ण कर दिया। वे राक्षस रक्त-वमन करते हुए वहीं गिर पड़े। भगवान्ने उन्हें मोक्ष प्रदान कर दिया। एक दिन माता पार्वती सखियोंके साथ मन्दिरमें पूजा करने गयीं। बालक गणेश वहीं मन्दिरके बाहर खेलने लगे। उसी समय क्रूर नामक एक महाबलवान् असुर ऋषिपुत्रके वेषमें आकर उनके साथ खेलने लगा और खेल-खेल में हेरम्बको मार डालनेके लिये उनके केश पकड़कर उन्हें धरतीपर पटकना चाहता था, परंतु लीलाधारी भगवान्ने उसका गला दबाकर तत्क्षण ही उसकी इहलीला समाप्त कर दी।

सखियोंसहित पार्वती यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित कारागारमें बंदी बना लिया, तब भगवान्ने दैत्यको ललकारा। हो गयीं। इसी तरह मङ्गलमोद प्रभु गणेशने लीला करते हुए असुर सिन्धुद्वारा भेजे गये अनेक छल-छद्मधारी असुरोंको सदा-सर्वदाके लिये मुक्त कर दिया। इस क्रममें उन्होंने दुष्ट वकासुर तथा श्वानरूपधारी ‘नूतन’ नामक राक्षसका वध किया। अपने शरीरसे असंख्य गणोंको उत्पन्न कर ‘कमलासुर’ की बारह अक्षौहिणी सेनाका विनाश कर दिया तथा त्रिशूलसे कमलासुरका मस्तक काट डाला। उसका मस्तक भीमा नदीके तटपर जा गिरा। देवताओं तथा ऋषियोंकी प्रार्थनापर गणेश वहाँ ‘मयूरेश’ नामसे प्रतिष्ठित हुए। इधर दुष्ट दैत्य सिन्धुने जब सभी देवताओंको भयंकर युद्ध हुआ। असुर-सैन्य पराजित हुआ।

यह देख कुपित दैत्यराज अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे मयूरेशपर प्रहार करने लगा; परंतु सर्वशक्तिमान्के लिये शस्त्रास्त्रोंका क्या महत्त्व ! सभी प्रहार निष्फल हो गये। अन्तमें महादैत्य सिन्धु मयूरेशके परशु-प्रहारसे निश्चेष्ट हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे दुर्लभ मुक्ति प्राप्त हुई। देवगण मयूरेशकी स्तुति करने लगे। भगवान् मयूरेशने सबको आनन्दितकर सुख-शान्ति प्रदान किया और अपने लीलावतरणके प्रयोजनकी पूर्णता बतलाते हुए अन्तमें अपनी लीलाका संवरण करके वे परम प्रभु परमधामको पधार गये- वहीं अन्तर्धान हो गये।

मोरेगांव का मयूरेश्वर मंदिर

दैत्य संहार के बाद गणेशजी महाराष्ट्र के पुणे जिले के मोरेगांव में प्रतिष्ठित हुए। यहां स्थित मयूरेश्वर मंदिर अष्टविनायक गणेश मंदिरों में प्रथम माना जाता है।
आज भी लाखों श्रद्धालु यहां आकर विघ्नहर्ता गणेशजी का आशीर्वाद पाते हैं।


निष्कर्ष

त्रेतायुग में गणेशजी के मयूरेश्वर अवतार ने यह सिद्ध कर दिया कि जब अधर्म और अन्याय अपनी सीमा पार करता है, तो ईश्वर स्वयं अवतार लेकर धर्म और सत्य की रक्षा करते हैं। यह कथा हमें सदैव यह प्रेरणा देती है कि भक्ति, सत्य और धर्म की शक्ति अजेय है।

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