गणेशजी को विघ्नहर्ता, बुद्धि-विवेक और सिद्धियों के दाता माना जाता है। वे थोड़ी-सी उपासना से ही प्रसन्न हो जाते हैं और इसी कारण उन्हें हिन्दू धर्म में प्रथम पूज्य देवता कहा गया है। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत गणपति वंदना के बिना अधूरी मानी जाती है।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार गणेशजी ने कुल 64 अवतार लिए हैं, जिनमें से 12 प्रमुख अवतारों की विशेष पूजा की जाती है। इन्हीं में से एक है सतयुग का महा शक्तिशाली अवतार “महोत्कट”।
महोत्कट अवतार की कथा
अंगदेश के प्रकाण्ड पंडित रुद्रकेतु और उसकी पत्नी शारदा नि:संतान थे तो उन्होंने गणेशजी की पूजा अर्चना की। उचित समय आने पर शारदा ने दो बालकों को जन्म दिया। माता पिता ने उनका नाम देवांतक और नरांतक रखा। बड़े होकर दोनों पुत्र भी विद्वान निकले और इंद्रलोक तक इसकी खबर पहुंची तो देवर्षि नादर देखने आए और उन्होंने दोनों की कुंडली देखकर रुद्रकेतु से कहा कि तुम्हारे दोनों पुत्र पराक्रमी और साहसी निकलेंगे किंतु अनिष्ट का संकेत भी है।
यह सुनक रुद्रकेतु ने कहा कि इसका समाधान तो नारदमुनि ने कहा कि इन दोनों बालकों को शिवजी की तपस्या करना चाहिए। उनकी प्रसन्नता से ही अनिष्टकारी योग समाप्त हो सकता है। तब दोनों ही शिवजी की तपस्या करते हैं। शिवजी प्रसन्न हो प्रकट होकर कहते हैं कि मांगों क्या मांगते हों। यह सुनकर दोनों कहते हैं कि यदि आप हम पर सच में ही प्रसन्न हैं तो ऐसा वर दीजिये की हम तीनों लोकों पर शासन कर सकें। देव, असुर, यक्ष, राक्षस पिशाच और गंधर्व किसी से भी हमारी मृत्यु ना हो। हम अजेय हों।
यह सुनकर भगवान शंकर ने कहा तथास्तु। सके बाद नरांतक कहता है कि मैं इंद्र की अमरावती पर कब्जा करता हूं और तुम धरती के अन्य राजाओं से निपटों। इस तरह दोनों भाइयों का आतंक शुरू हो जाता है और दोनों भाइयों का तीनों लोक पर कब्जा हो जाता है।
धरती, पाताल और स्वर्ग तीनों पर उनका अधिकार रहता है। फिर वे तीनों मिलकर वैदिक धर्म को भंग करके असुर रीति को लागू करते हैं और तब सभी ऋषि मुनियों पर अत्याचार बढ़ जाते हैं। फिर एक दिन अपने पुत्रों (देवताओं) की दुर्दशा देखकर अदिति अत्यंत ही दुखी हुई और वह अपने पति ऋषि कश्यप से कहने लगी की आप कुछ करें कि जिससे मेरे पुत्रों को पुन: उनका राज्य मिल सके।
कहते हैं कि भगवान श्री गणपति ने कृतयुग अर्थात सतयुग में कश्यप व अदिति के यहां श्री अवतार महोत्कट विनायक नाम से जन्म लिया। इस अवतार में गणपति ने देवतान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों का संहार कर धर्म की स्थापना की व अपने अवतार की समाप्ति की।
कृतयुग में भगवान गणपति अपने महान उत्कट ओजशक्ति के कारण वे ‘महोत्कट’ नाम से विख्यात हुए, उन महातेजस्वी प्रभु के दस भुजाएं थीं, उनका वाहन सिंह था, वे तेजोमय थे। उन्होंने देवांतक तथा नरान्तक आदि प्रमुख दैत्यों के संत्रास से संत्रस्त देव, ऋषि-मुनि, मनुष्यों तथा समस्त प्राणियों को भयमुक्त किया। देवांतक से हुए युद्ध में वे द्विदंती से एकदंती हो गए।