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🌺 यज्ञपत्नियों पर श्रीकृष्ण की कृपा :भक्ति की सर्वोच्च लीला (श्रीमद्भागवत 10.23)

Yajna Patni Uddharan Story from Shrimad Bhagavatam

🌿 परिचय

भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ केवल चमत्कारों की कथा नहीं, बल्कि भक्ति और प्रेम के गूढ़ सिद्धांतों का सजीव उदाहरण हैं। ( Yajna Patni Uddharan Story from Shrimad Bhagavatam ) श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध का तेइसवाँ अध्याय (अध्याय 10.23)“यज्ञपत्न्युद्धारणम्” – इस बात का अद्भुत उदाहरण है कि सच्चा प्रेम किसी भी सामाजिक बंधन या कर्मकांड से ऊपर होता है।

प्राण्, बुद्धि, मन्, शरीर​, स्वजन​, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिस्के लिये और जिसकी शन्निधिसे प्रिय लगती है– उस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढकर और कौन प्यारा हो सकता है॥२७॥ प्राणबुद्धिमन: स्वात्मदारापत्यधनादय:।यत्सम्पर्कात प्रिया आसंस्तत: को न्वपर: प्रिय:॥२७

🕉️ कथा का विवेचना

यज्ञपत्नियोंपर कृपा–यज्ञपत्नि उद्धार श्रीम्द्भागवत ।१०।२३

गोपा ऊचु:

राम राम महाविर्य कृष्ण् दुष्टनिवर्हण।

एषा वै बाधते क्षुन्नस्तच्छान्तिं कर्तुमर्हथ॥१॥

ग्वालबालोंने कहा–नयनाभिराम बलराम! तुम बडे पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर ! तुमने बडे-बडे दुष्टोंका संहार किया है । उन्हीं दुष्टोंके समान यह भूख भी हमे सता रही है। अत: तुम दोनों इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो ॥१॥

श्रीशुक उवाच

इति विज्ञापितो गोपैर्भगवान देवकीसुत:।

भक्ताया विप्रभार्याया: प्रसीदन्निदमब्रवित॥२॥

श्रीशुकदेवजीने कहा– परीक्षित ! जब ग्वाल-बालोंने देवकीनन्दर भगवान श्रीकृष्णसे इस् प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने मथुराकी अपनी भक्त ब्राम्हण्पत्नियोंपर अनुग्रह करनेके लिय यह बात कही–॥२॥

प्रयात देवयजनं ब्राम्हणा ब्रम्हवादिन:।

सत्रमाङ्गिरसं नाम ह्यसते स्वर्गकाम्यया॥३॥

“मेरे प्यारे मित्रो ! याहाँसे थोडी ही दूरपर वेदवादी ब्रम्हाण स्वर्गकी कामनासे आङ्गिरस नामका यज्ञ कर रहे है। तुम उनकी यज्ञशालामे जाओ॥३॥

तत्र गत्वादनं गोपा याचतास्मद्विसर्जिता:।

किर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम॥४॥

ग्वालबालो ! मेरे भेजनेसे वहाँ जकर तुमलोग मेरे बडे भाई भगवान श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोडा -सा भात​–भोजनकी सामग्री माँग लाओ”॥४॥

इत्यादिष्टा भगवता गत्वायाचन्त ते तथा।

कृताञ्जलिपुटा विप्रान दण्डवत पतिता भुवि॥५॥

जब भगवानने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन् ब्रम्हणोंकी यज्ञशालामें गये और उनसे भगवानकी आज्ञाके अनुसार ही अन्न माँगा। पहले उन्होंने पृथ्विपर गिरकर दण्डवत​-प्रणाम किया और फिर हाथ जोडकर कहा–५॥

हे भूमिदेवा: श्रृणुत कृष्ण्स्यादेशकारिण:।

प्राप्ताञ्जानीत भ्द्रं वो गोपान नो रामचोदितान॥६॥

“पृथ्वीके मूर्तिमान देवता ब्रम्हणो ! आपका कल्याण हो ! आपसे निवेदन है कि हम व्रजके ग्वाले है । भगवान श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञासे हम आपके पास याये हैं। आप हमारी बात सुने॥६॥

गाश्चारयन्तावविदूर सोदनं रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ।

तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमा:॥७॥

भगवान बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँसे थोडे ही दूरपर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भुख लगी है और वे चाहते हैं कि आपलोग उन्हें थोडा-सा भात दे दें। ब्राम्हणो ! आप धर्मका मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन् भोजनार्थियोंके लिये कुछ भात दे दीजिये॥७॥

दीक्षाया: अशुसंस्थाया: सौत्रामण्याश्च सत्तमा:।

अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्चन हि दुष्यति॥८॥

सज्जनो ! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है॥८॥

इतिते भगवद्याच्ञां श्रृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवु:।

क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिन:॥९॥

परीक्षित ! इस प्रकार भगवानके अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राम्हणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बडे-बडे कर्मोंमें उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राम्हण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालक ही, परन्तु अपनेको बडा ज्ञानवृद्ध मानते थे॥९॥

देश: काल: पृथग द्रव्यं मन्त्रतन्त्रर्त्विजोऽग्नय:।

देवता यजमानश्च क्रतुधर्मश्च यन्मय:॥१०॥

परीक्षित ! देश​, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियां, भिन्न​-भिन्न कर्मोमें विनियुक्त मन्त्र​, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्-ब्रम्हा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म –इन् सब रुपोंमें एकमात्र भगवान ही प्रकट हो रहे हैं॥१०॥

तं ब्रम्ह परमं साक्षाद भगवन्तमधोक्षजम्।

मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे॥११॥

वे ही इन्द्रियातीत परब्रम्ह भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे है। परन्तु इन् मूर्खोंने, जो अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवानको भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया॥११॥​

न ते यदोमिति प्रोचुर्न नेति च परंतप।

गोपा निराशा: प्रत्येत्य तथोचु: कृष्णरामयो:॥१२॥

परीक्षित ! जब उन ब्रम्हणोंने “हाँ” या “ना”–कुछ नहीं कहा, तब ये बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी। उनकी बात सुनकर सारे जगतके स्वामी भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे !॥१२॥

तदिपाकर्ण्य भगवान प्रहस्य जगदीश्वर:।

व्याजहार पुनर्गोपान दर्शयैंल्लौकिकीं गतिम॥१३॥

उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि संसारमे असफलता तो बार​-बार होती है, उस्से निराश नहीं होना चाहिये; बार​-बार प्रयत्न करते रहने से सफलता मिल ही जाती है।”फिर उनसे कहा–॥१३॥

मां ज्ञापयत पत्नीभ्य: ससंकर्षणमागतम् ।

दास्यन्ति काममन्नं व: स्निग्धा मय्युषिता धिया॥१४॥

मेरे प्यारे ग्बालबालों ! इस बार तुमलोग् उन्की पत्नियोंके पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बडा प्रेम करती हैं। उनका मन् सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है”॥१४॥

गत्वाथ पत्निशालायां दृष्टाऽऽसिना: स्वलङ्कृता:।

नत्वा द्विजसतीर्गोपा: प्रश्रिता इदमब्रुवन्॥१५॥

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशालामें गये। वाहाँ जाकर देखा तो ब्राम्हणोंकी पत्नियाँ सुन्दर​-सुन्दर वस्त्र और गहनोंसे सज​-धजकर बैठी है। उन्होंने द्विजपत्नियोंको प्रणाम करके बडी नम्रतासे यह बात कही—॥१५॥

नमो वो विप्रपत्नीभ्यो निबोधत वचांसि न:।

इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम॥१६॥

“आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान श्रीकृष्ण यहाँसे थोडि ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है ॥१६॥

गाश्चारयन सगोपालै: सरामो दूरमागत:।

बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम॥१७॥

वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भुख लगी हैं। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दे”॥१७॥

श्रुत्वाच्युतमुपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुका:।

तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमा:॥१८॥

परीक्षित् ! वे ब्राम्हणियाँ बहुत दिनोंसे भगवानकी मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं ॥१८॥

चतुर्विधं बहुगुनमन्नमादाय भाजनै:।

अभिसस्रु: प्रियं सर्वा: समुद्रमिव निम्नगा:॥१९॥

निषिध्यमाना: पतिभिर्भ्रातृभिर्बन्धुभि: सुतै:।

भगवत्युत्तमस्लोके दीर्घश्रुतधृताशया:॥२०॥

उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य​, भोज्य​, लेह्य और चोष्य​–चारों प्रकारकी भोजन -सामग्री ले ली तथा भाई -बन्धु , पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पडीं–ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समौद्रके लिये।

क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुण​, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था॥१९-२०॥

यमुनोपवनेऽशोकनवपल्लवमण्डिते ।

विचरन्तं वृतं गोपै: साग्रजं ददृशु: स्त्रिय:॥२१॥

ब्राम्हणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोपलोंसे शोभायमान अशोक -वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर​-उधर घूम रहे हैं॥२१॥

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्हधातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे ।

विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्॥२२॥

उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अङ्ग​-अङ्गमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका -सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वाल​-बालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घूँघूराली अलकें लटक रही है और मुखकमल मन्द​-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है॥२२॥

प्राय: श्रुतप्रियतमोदयकरणपूरैर्यस्मिन निमग्नमनसस्तमथाक्षिरन्ध्रै:।

अन्त: प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र॥२३॥

परीक्षित ! अबतक अपने प्रियतम् श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ आपने कानोसे सुन​-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन्-ही-मन् उनका आलिङ्गन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त की–ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओंकी वृत्तियाँ “यह मैं, और मेरा” इस भावसे जलती रहती है, परन्तु सुषुप्ति -अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लिन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है॥२३॥

तास्तथा त्यक्तसर्वांशा: प्राप्ता आत्मदिदृक्षया।

विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसितानन:॥२४॥

प्रिय परीक्षित् ! भगवान सबके हृदयकी बात जान्ते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी है । उन्होंने जब देखा कि ये ब्राम्हणपत्नियाँ अपने भाइ-बन्धु और पति -पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोडकर केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी है, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरङ्गे अठखेलियाँ कर रही थी॥२४॥

स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम।

यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि व:॥२५॥

भगवानने कहा– “महाभाग्यवति देवियों ! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो । कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ?

तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे -जैसे प्रेमपूर्न हृदय वालोंके योग्य ही है॥२५॥​

नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशला: स्वार्थदर्शना:।

अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा॥ २६॥

इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान पुरुष हैं, वे अपने प्रियतमके समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं, जिसमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहती–जिसमे किसी प्रकारका व्यवधान, सङ्कोच​, छिपाव​, दुविधा या द्वैत नहीं होता॥२६॥

प्राणबुद्धिमन: स्वात्मदारापत्यधनादय:।

यत्सम्पर्कात प्रिया आसंस्तत: को न्वपर: प्रिय:॥२७॥

प्राण्, बुद्धि, मन्, शरीर​, स्वजन​, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिस्के लिये और जिसकी शन्निधिसे प्रिय लगती है– उस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढकर और कौन प्यारा हो सकता है॥२७॥

तद यात देवयजनं पतयो वो द्विजातय:।

स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिन:॥२८॥

इसलिय तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हुँ। परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं । अब अपनी यज्ञशालामें लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राम्हण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ् पूर्ण कर सकेंगे”॥२८॥

पत्न्य ऊचु:

मैवं विभोऽर्हति भवान गदितुं नृशंस सत्यं कुरुष्व निगमं त्व पादमूलम्।

प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं केशैनिवोढुमतिलङ्घय् समस्तबन्धुन्॥२९॥

ब्राम्हणपत्नियोंने कहा–अन्तर्यामी श्यामसुन्दर ! आपकी यह् बात निष्ठुरतासे पूर्न है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहेये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवानको प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसारमें नहीं लौटना पडता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करके आपके चरणोंमें इसलिये आयी है कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसीकी माला अपने केशोंमें धारण करें॥२९॥

गृण्हन्ति नो न पतय: पितरौ सुता वा न भ्रातृबन्धुसुहृद: कुत एव चान्ये।

तस्माद भवत्प्रपदयो: पतितात्मनां नो नान्या भवेद गतिररिन्दम तद् विधेहि॥३०॥

स्वामी ! अब हमारे पति-पुत्र​, माता-पिता, भाई -बन्धु और स्वजन​-सम्बन्धी हमे स्वीकार् नहीं करेंगे, फिर दुसरोंकी तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे ! अब हम आपके चरणोंमें आ पडी हैं। हमे और किसीका सहारा नहीं है। इसलिये अब हमे दूसरोंकी शरनमें न जाना पडे, ऐसी व्यवस्था कीजिये॥३०॥

श्रीभगवानुवाच

पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादय:।

लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते॥३१॥

भगवान श्रीकृष्णने कहा–देवियों !तुम्हारे पति-पुत्र​, माता-पिता, भाई -बन्धु–कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे।

उनकि तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न​, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं॥३१॥

न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्गसङ्गो नृणामिह।

तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान्मामवाप्स्यथ॥३२

देवियो ! इस संसारमें मेरा अङ्ग​-सङ्ग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी॥३२॥

इति श्रीम्द्भागवते महापूराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वाधे यज्ञपत्न्युद्धरणं नाम त्रयोविंशोऽध्याय​:॥२३॥

🔱 कथा का संदेश


🌹 निष्कर्ष: Yajna Patni Uddharan Story from Shrimad Bhagavatam

यह प्रसंग हमें सिखाता है कि भक्ति केवल हृदय का विषय है, न कि किसी समाज या संस्कार की सीमा में बँधी हुई।
ब्राह्मण पत्नियों की तरह, जब हम अपना अहंकार और आसक्ति त्यागकर प्रेमपूर्वक भगवान की ओर बढ़ते हैं —
तब कृष्ण स्वयं हमारे स्वागत के लिए खड़े मिलते हैं।


📿 हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल! 🚩

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