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देवाधिदेव महादेव – नटराज शिव (Lord of Lords Mahadev – Nataraja Shiva)

Lord Nataraja Shiva

नटराज शिव का रहस्य: हिन्दू धर्म के त्रिदेवों में शिव का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि उन्हें संहारक या प्रलयकर्ता कहा गया है, परंतु उनके अनन्य उपासक उन्हें सृष्टि और स्थिति का कर्ता भी मानते हैं। शिव को अनुग्रह, प्रसाद और तिरोभाव करने वाला कहा गया है। यही तीन गुण उनकी पंचकृत्य (सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह) की व्याख्या करते हैं।

भारतीय संस्कृति के दर्शन, कला, नृत्य और साहित्य के हर आयाम पर शिव महिमा की छाप गहराई से दिखाई देती है।


शिव के विविध रूप और शिल्प

शास्त्रों में शिव के जितने रूपों का वर्णन मिलता है, उतने ही शिल्पियों ने उनकी प्रतिमाएँ भी शिल्पित की हैं। कला की दृष्टि से शिव को तीन प्रमुख रूपों में प्रस्तुत किया गया है:

  1. प्रतीक रूप (शिवलिंग)
  2. वृष रूप (नन्दी प्रतिमा)
  3. मानवीय स्वरूप (उग्र और सौम्य)

उग्र स्वरूप में शिव को भैरव, रुद्र, पशुपति, वीरभद्र, विरूपाक्ष आदि रूपों में दिखाया गया है, जबकि सौम्य स्वरूपों में चंद्रशेखर, वृषवाहन, उमामहेश्वर, स्कन्द माता आदि की प्रतिमाएँ पाई जाती हैं।


नटराज – विश्वनर्तक शिव का दिव्य रूप

शिव का अत्यंत लोकप्रिय रूप “नटराज” (Lord of Dance) दक्षिण भारत की चोलकालीन कांस्य प्रतिमाओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ।
नटराज रूप में भगवान शिव को संगीत, नृत्य, नाट्य, योग और ज्ञान का अधिपति कहा गया है।

भरतमुनिके नाट्यशास्त्र में १०८ मुद्राओं का उल्लेख मिलता है, जिसमें से अधिकतर मुद्राएँ शिव के नृत्य में देखी जाती हैं।
चिदम्बरम नटराज मंदिर में इन्हीं १०८ मुद्राओं का अद्भुत शिल्प अंकन है, जहाँ प्रत्येक मुद्रा के नीचे नाट्यशास्त्र के श्लोक भी उत्कीर्ण हैं।


उत्तरी और दक्षिणी भारत में नटराज की भिन्न शैली

दक्षिण भारत के नटराज रूप में शिव अपनी बाईं भुजा में अग्नि धारण करते हैं और पैरों के नीचे झुका हुआ अपस्मार पुरुष (Muyalaka) अज्ञान का प्रतीक होता है।
उत्तर भारत की मूर्तियों में ललित मुद्रा, नंदी या नर्तक सहचर रूप में दर्शाया जाता है।

चोल काल (14–15वीं सदी) की कांस्य नटराज प्रतिमाओं में विशाल प्रभामंडल में शिव अंधकार के प्रतीक अपस्मार पर पग रखकर नृत्य करते हैं।
उनके नृत्य में समाहित हैं — सृष्टि, निर्माण, स्थिति, संहार और तिरोभाव


नटराज शिव का रहस्य का उल्लेख पुराणों और शास्त्रों में

विष्णुधर्मोत्तरपुराण में नटराज शिव को नृत्यविज्ञान के प्रवर्तक कहा गया है —
“यथा चित्रे तथा नृत्ये त्रैलोक्यानुकृतिं स्मृता।”
अर्थात जैसे चित्रकला संसार को रूप देती है, वैसे ही नृत्य ब्रह्मांड की लय को व्यक्त करता है।

मत्स्यपुराण (२५९।१०-११) में शिव की दशभुजी नटराज मूर्ति का वर्णन है —

वैशाखस्थानकं कृत्वा नृत्याभिनयसंस्थितः ॥
नृत्यन् दशभुजः कार्यो गजचर्मधरस्तथा ॥

अर्थ — नटराज मूर्ति को विशाखस्थान मुद्रा में दर्शाया जाना चाहिए, जिसमें वे नृत्य या युद्ध मुद्रा में गजचर्म (हाथी का चर्म) धारण करते हुए खड़े हों।


भारतीय मंदिरों में नटराज मूर्तियाँ

नटराज की नृत्य प्रतिमाएँ भारत के हर क्षेत्र में अंकित हैं —
एलोरा, एलीफेंटा, बादामी, कांचीपुरम, भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर और खजुराहो के शिल्पों में।
परंतु इन मूर्तियों की चरम कलात्मकता दक्षिण भारत की चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं में देखने को मिलती है।
इन प्रतिमाओं में नटराज को विश्वनर्तक और सृजनशक्ति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।


शिव का ताण्डव नृत्य – सृष्टि का ब्रह्मनाद

शिव का ताण्डव नृत्य केवल कला नहीं, बल्कि संपूर्ण शैव दर्शन का प्रतीक है।

श्रीमद्भागवत (१०.६२.४) में वर्णित है —
“सहस्त्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम् ॥”
एक बार बाणासुर ने अपनी हजार भुजाओं से वाद्य बजाकर ताण्डव करते हुए शिव को प्रसन्न किया था।

ताण्डव में —


ताण्डव के पाँच रूप और दार्शनिक अर्थ

ताण्डव के पाँच स्वरूप Shiva’s five cosmic acts कहलाते हैं —

  1. सृष्टि (Creation) – ब्रह्मा कार्य
  2. स्थिति (Preservation) – विष्णु कार्य
  3. संहार (Destruction) – रुद्र कार्य
  4. तिरोभाव (Veiling / Illusion) – माया तत्व
  5. अनुग्रह (Grace / Liberation) – सदाशिव तत्व

यही पांच क्रियाएँ शिव के ताण्डव में अनवरत चलती हैं।

उनका नृत्य “न म शिव य” पाँचाक्षरी मंत्र का सजीव रूप है —

शिव के चारों हाथ ब्रह्मांडीय तत्त्वों के प्रतीक हैं —


नटराज शिव – विश्वलय का नर्तक

ताण्डव नृत्य में शिव केवल ब्रह्मांड के लय‑ताल स्थापित नहीं करते बल्कि जीव के आंतरिक कल्याण का भी संदेश देते हैं।
तमिल साहित्य उन्मैय्‑विलक्वम् में इस नृत्य को “सत्य का उद्घोष” कहा गया है।

शिव के नटराज रूप में संसार की समग्रता, परिवर्तन का नियम, और मोक्ष का मार्ग सम्मिलित है।
उनके नृत्य की प्रत्येक लय सृष्टि, स्थिति और संहार की ब्रह्मगाथा को अभिव्यक्त करती है।

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