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मार्कण्डेयप्रोक्तं हरिहराभिन्नतावर्णनस्तोत्रम् – हरि हर एकत्व का दिव्य रहस्य (Markandeyaproktam Hariharaabhinnatavarnana Stotram with Hindi Meaning

हरिहराभिन्नतावर्णनस्तोत्रम्

🕉️ परिचय | Introduction

हरिवंश पुराण के अनुबन्ध पर्व में महर्षि मार्कण्डेय जी द्वारा कहा गया यह स्तोत्र,
भगवान विष्णु (हरि) और महेश (हर) के अभिन्न स्वरूप (Eternal Unity) को अत्यंत गूढ़ और सुंदर ढंग से प्रकट करता है।

यह स्तोत्र हमें बताता है कि —

“यो वै विष्णुः स वै रुद्रो यो रुद्रः स पितामहः।”
अर्थात् — जो विष्णु हैं वही रुद्र हैं, और जो रुद्र हैं वही ब्रह्मा हैं।
ये तीनों एक ही परमात्मा के त्रिविध रूप हैं।

यह स्तोत्र सुनने या पढ़ने मात्र से साधक के मन में भेदभाव मिटता है,
और हरि-हर एकत्व का अद्भुत अनुभव जागृत होता है।


📜 मार्कण्डेयप्रोक्तं हरिहराभिन्नतावर्णनस्तोत्रम्

(हरिवंश पुराण – अनुबन्ध पर्व)

इसमें ऋषि मार्कण्डेय भगवान विष्णु और भगवान शिव के अभेद स्वरूप का वर्णन करते हैं — कि दोनों वास्तव में एक ही परमात्मा हैं जो भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होते हैं।


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मार्कण्डेय उवाच —
शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे ।
यथान्तरं न पश्यामि तेन तौ दिशतः शिवम् ॥१

अर्थ:
जो शिव विष्णुरूप हैं और जो विष्णु शिवरूप हैं — उन दोनों में मुझे कोई भेद नहीं दिखता।
इसलिए मैं उन दोनों को प्रणाम करता हूँ जो कल्याणस्वरूप हैं।

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अनादिमध्यनिधनमेतदक्षरमव्ययम् ।
तदेव ते प्रवक्ष्यामि रूपं हरिहरात्मकम् ॥२

अर्थ:
जो अनादि, अनंत, अक्षर और अविनाशी परम तत्व है — उसी का हरि और हर (विष्णु-शिव) रूप मैं तुम्हें बताऊँगा।

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यो वै विष्णुः स वै रुद्रो यो रुद्रः स पितामहः ।
एका मूर्तिस्त्रयो देवा रुद्रविष्णुपितामहाः ॥३

अर्थ:
जो विष्णु हैं वही रुद्र हैं, और जो रुद्र हैं वही ब्रह्मा हैं।
ये तीनों देवता एक ही परम मूर्ति के तीन रूप हैं।
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वरदा लोककर्तारो लोकनाथाः स्वयंभुवः ।
अर्धनारीश्वरास्ते तु व्रतं तीव्रं समाश्रिताः ॥४

अर्थ:
ये तीनों ही जगत् के रचयिता, पालनकर्ता, और दाता हैं।
वे अर्धनारीश्वर रूप में — परम व्रती स्वरूप हैं।

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यथा जले जलं क्षिप्तं जलमेव तु तद्भवेत् ।
रुद्रं विष्णुः प्रविष्टस्तु तथा रुद्रमयो भवेत् ॥५

अर्थ:
जैसे जल में जल मिल जाने पर केवल जल ही रह जाता है,
उसी प्रकार जब विष्णु रुद्र में प्रविष्ट होते हैं, तो रुद्र स्वयं विष्णुमय हो जाते हैं।

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अग्निमग्निः प्रविष्टस्तु अग्निरेव यथा भवेत् ।
तथा विष्णुं प्रविष्तस्तु रुद्रो विष्णुमयो भवेत् ॥६

अर्थ:
जैसे अग्नि में अग्नि मिल जाने पर वह केवल अग्नि ही रहती है,
वैसे ही जब रुद्र विष्णु में समा जाते हैं तो रुद्र विष्णुमय हो जाते हैं।

🍁
रुद्रमग्निमयं विद्याद्विष्णुः सोमात्मकः स्मृतः ।
अग्निष्टोमात्मकं चैव जगत्स्थावरजंगमम् ॥७

अर्थ:
रुद्र अग्नि-स्वरूप हैं, विष्णु सोमस्वरूप (शीतल, कल्याणकारी) हैं,
और सम्पूर्ण जगत् स्थावर-जंगम — अग्नि (ऊर्जा) और सोम (शीतलता) का संयोग है।

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कर्तारौ चापहर्तारौ स्थावरस्य चरस्य च ।
जगतः शुभकर्तारौ प्रभू विष्णुमहेश्वरौ ॥८

अर्थ:
विष्णु और महेश (शिव) — दोनों ही जगत् के सृजनकर्ता और संहारकर्ता हैं।
दोनों ही प्रभु इस संसार में शुभ करने वाले हैं।

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कर्तृकारणकर्तारौ कर्तृकारणकारकौ ।
भूतभव्यभवौ देवौ नारायणमहेश्वरौ ॥९

अर्थ:
नारायण और महेश्वर — ये दोनों ही सृष्टि के कर्ता, कारण और साधक हैं;
भूत (अतीत), भव्य (भविष्य), और वर्तमान — तीनों में व्याप्त हैं।

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एतौ तौ च प्रवक्तारावेतौ तौ च प्रभामयौ ।
जगतः पालकावेतावेतौ सृष्‍टिकरौ स्मृतौ ॥१०

अर्थ:
ये दोनों ही (हरि और हर) ज्ञानदाता, प्रकाशस्वरूप, जगत् के रक्षक और सृष्टिकर्ता हैं।

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एते चैव प्रवर्षन्ति भान्ति वान्ति सृजन्ति च ।
एतत्परतरं गुह्यं कथितं ते पितामह ॥११

अर्थ:
ये (हरि-हर) ही वर्षा करते हैं, प्रकाश देते हैं, पवन प्रवाहित करते हैं, और सृष्टि रचते हैं।
हे पितामह! यह अत्यंत गोपनीय सत्य मैंने कहा है।

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यश्चैनं पठते नित्यं यश्चैनं श‍ृणुयान्नरः ।
प्राप्नोति परमं स्थानं विष्णुरुद्रप्रसादजम् ॥१२

अर्थ:
जो पुरुष इस स्तोत्र का नित्य पाठ या श्रवण करता है,
वह विष्णु और रुद्र की कृपा से परम पद प्राप्त करता है।

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देवौ हरिहरौ स्तोष्ये ब्रह्मणा सह संगतौ ।
एतौ च परमौ देवौ जगतः प्रभवाप्यायौ ॥१३

अर्थ:
हरि और हर — ये दोनों ही ब्रह्मा के साथ पूज्य हैं।
यही दो देवता जगत् के उत्पत्ति और लय के कारण हैं।

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रुद्रस्य परमो विष्णुर्विष्णोश्च परमः शिवः ।
एक एव द्विधा भूतो लोके चरति नित्यशः ॥१४

अर्थ:
रुद्र के परे विष्णु हैं, विष्णु के परे शिव हैं;
वास्तव में दोनों एक ही परमात्मा हैं जो दो रूपों में नित्य विचरते हैं।

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न विना शंकरं विष्णुर्न विना केशवं शिवः ।
तस्मादेकत्वमयातौ रुद्रोपेन्द्रौ तु तौ पुरा ॥१५

अर्थ:
शंकर के बिना विष्णु नहीं और केशव के बिना शिव नहीं।
अतः ये दोनों एकत्वस्वरूप, रुद्र और उपेन्द्र (विष्णु) हैं।

नमो रुद्राय कृष्णाय नमः संहतचारिणे ।
नमः षडर्धनेत्राय द्विनेत्राय च वै नमः ॥ १६॥
नमः पिङ्गलनेत्राय पद्मनेत्राय वै नमः ।
नमः कुमारगुरवे प्रद्युम्नगुरवे नमः ॥ १७॥
नमो धरणीधराय गङ्गाधराय वै नमः ।
नमो मयूरपिच्छाय नमः केयूरधारिणे ॥ १८॥
नमः कपालमालाय वनमालाय वै नमः ।
नमस्त्रिशूलहस्ताय चक्रहस्ताय वै नमः ॥ १९॥
नमः कनकदण्डाय नमस्ते व्रतदण्डिने ।
नमश्चर्मनिवासाय नमस्ते पीतवाससे ॥ २०॥
नमोऽस्तु लक्ष्मीपतये उमायाः पतये नमः ।
नमः खट्वाङ्गधाराय नमो मुसलधारिणे ॥ २१॥
नमो भस्माङ्गरागाय नमः कृष्णाङ्गधारिणे ।
नमः श्मशानवासाय नमोऽस्त्वाश्रमवासिने ॥ २२॥
नमो वृषभवाहाय नमो गरुडवाहिने ।
नमोऽस्त्वनेकरूपाय बहुरूपाय वै नमः ॥ २३॥
नमः प्रलयकर्त्रे च नमः सृष्टिकराय च ।
नमोऽस्तु बहुरूपाय नमो भैरवरूपिणे ॥ २४॥
विरूपाक्षाय देवाय नमः सौम्येक्षणाय च ।
दक्षयज्ञविनाशाय बलेर्नियमनाय च ॥ २५॥
नमः पर्वतवासाय नमः सागरवासिने ।
नमः सुररिपुघ्नाय त्रिपुरघ्नाय वै नमः ॥ २६॥
नमोऽस्तु नरकघ्नाय नमः कामाङ्गनाशिने ।
पुष्पदन्तविनाशाय नमो मधुविघातिने ॥ २७॥ नमोऽस्त्वन्धकनाशाय नमः कैटभघातिने ।
नमः सहस्रहस्ताय नमोऽसंख्येयबाहवे ॥ २८॥
नमः सहस्रशीर्षाय बहुशीर्षाय वै नमः ।
दामोदराय देवाय मुञ्जमेखलिने नमः ॥ २९॥
नमस्ते भगवन् विष्णो नमस्ते भगवन् शिव ।
नमस्ते भगवन् देव नमस्ते देवपूजित ॥ ३०॥
नमस्ते सामभिर्गीत नमस्ते यजुर्भिः सह ।
नमस्ते सुरशत्रुघ्न नमस्तेऽसुरपूजित ॥ ३१॥
नमस्ते कर्मिणां कर्म नमोऽमितपराक्रम ।
हृषीकेश नमस्तेऽस्तु स्वर्णकेश नमोऽस्तु ते ॥ ३२॥

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इमं स्तवं यो रुद्रस्य विष्णोश्चैव महात्मनः।
समेत्य ऋषिभिः सर्वैः स्तुतौ तौ सुमहात्मभिः॥३३

अर्थ:
जो इस स्तोत्र से रुद्र और महात्मा विष्णु की संयुक्त रूप से स्तुति करता है, उसे समस्त महान् ऋषिगणों की संगति में उन दोनों परमात्माओं की एकरूपता का बोध होता है और वह जैसे वेदज्ञ महात्मा स्तुति करते हैं, वैसे ही उनको प्रसन्न करता है।

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व्यासेन देवविदुषा नारदेन च धीमता।
भारद्वाजेन गार्ग्येण विश्वामित्रेण वै तथा॥३४

अर्थ:
इस स्तोत्र की स्तुति व्यास ऋषि, देवविद्या में पारंगत नारद, ज्ञानी भारद्वाज, गार्ग्य तथा विश्वामित्र जैसे महर्षियों ने भी की है।

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विश्वामित्रेण वात्स्येन तथा चैव सुमन्तुना।
अगस्त्येन पुलस्त्येन धौम्येन च महात्मना॥३५

अर्थ:
इसके साथ ही वात्स्य, सुमन्त, अगस्त्य, पुलस्त्य और महात्मा धौम्य आदि ऋषियों ने भी इस हरिहर स्तोत्र की स्तुति और अनुशंसा की है।

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यश्चेदं पठते स्तोत्रं नित्यं हरिहरात्मकम्।
अरोगो बलवांश्चैव जायते नात्र संशयः॥३६

अर्थ:
जो व्यक्ति इस हरिहरात्मक स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह सदा निरोगी रहता है, उसका शरीर शक्तिशाली होता है — इसमें तनिक भी संदेह नहीं।

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श्रियम् च लभते नित्यं न च स्वर्गान्निवर्तते।
अपुत्रो लभते पुत्रं कन्या विन्दति सत्पतिम्॥३७

अर्थ:
इस स्तोत्र के नित्य पाठ से मनुष्य को सदैव लक्ष्मी (धन-संपत्ति) की प्राप्ति होती है, वह स्वर्गलोक से कभी वापस नहीं आता (अर्थात् मोक्ष या उत्तम लोक की प्राप्ति होती है)।
जो अपुत्र है, उसे पुत्र प्राप्त होता है, और कन्या को उत्तम पति की प्राप्ति होती है।

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गुर्विणी शृणुते या तु वरं पुत्रं प्रसूयते।
राक्षसाश्च पिशाचाश्च भूतानि च विनायकाः।
भयं तत्र न कुर्वन्ति यत्रायं पठ्यते स्तवः॥३८

अर्थ:
जो गर्भवती स्त्री इस स्तोत्र को सुनती है, वह उत्तम पुत्र को जन्म देती है। जहाँ यह स्तोत्र पढ़ा जाता है, वहाँ राक्षस, पिशाच, भूत-प्रेत, या विनायक (विघ्नकारी शक्तियाँ) भय उत्पन्न नहीं करते।

समापन:
इति हरिवंशान्तर्गतं मार्कण्डेयप्रोक्तं हरि-हराभिन्नतावर्णनस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

अर्थ:
इस प्रकार हरिवंश पुराण के परिशिष्ट (अनुबन्ध) भाग में मार्कण्डेय ऋषि द्वारा कहा गया हरि (विष्णु) और हर (शिव) के अभिन्न स्वरूप का वर्णन करने वाला स्तोत्र सम्पूर्ण होता है।

(स्तोत्र सारांश
यह स्तोत्र यह सिद्ध करता है कि —
शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है।
दोनों एक ही परब्रह्म के दो रूप हैं —
एक संहार का, दूसरा पालन का।
जो इस एकत्व का बोध करता है, वह सभी मतभेदों से ऊपर उठकर परम शिवनारायण के स्वरूप को प्राप्त करता है।)

🌼 स्तोत्र सारांश (Stotra Summary): हरिहराभिन्नतावर्णनस्तोत्रम्

यह स्तोत्र यह सिद्ध करता है कि —
शिव और विष्णु एक ही परमात्मा के दो रूप हैं।
एक संहार और परिवर्तन का प्रतीक है, दूसरा संरक्षण और सृजन का।
दोनों के बिना सृष्टि अधूरी है।
जो साधक इस एकत्व का अनुभव करता है, वह मोह, भेदभाव और अहंकार से ऊपर उठकर
परम शिवनारायण का साक्षात्कार करता है।


🌺 समापन

इति हरिवंशान्तर्गतं मार्कण्डेयप्रोक्तं हरिहराभिन्नतावर्णनस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

यह स्तोत्र साधना, शांति और मोक्ष — तीनों का सेतु है।
हरि-हर की उपासना करने वाला साधक वास्तव में परम ब्रह्म की साधना करता है।

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