🌿 परिचय | Introduction
भक्तशिरोमणि हनुमान — जिनका नाम सुनते ही भक्ति, शक्ति, और समर्पण का स्वरूप साकार हो उठता है।
वे केवल वानर नहीं, बल्कि परमात्म चेतना से जुड़ी दिव्य शक्ति हैं।
यह लेख हमें हनुमान जी के जीवन के उन आध्यात्मिक रहस्यों से परिचित कराता है, जो एक साधक को आत्मबोध और आत्मविश्वास के शिखर तक पहुँचाते हैं।
✨ अतुलित बलधामं — हनुमान जी की महिमा
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनांग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपति प्रियभक्तं, वातजातं नमामि।।
परंतु जब बाली ने अपने भाई सुग्रीव को मारकर अपने राज्य से निकाल दिया था तो वे छिपकर ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगे थे, हनुमान जी भी मित्र सुग्रीव के साथ वहीं रहने लगे।
यदि हनुमान जी इतने ही अतुलितबलधामं (महाबली) थे तो उन्हें बाली को युद्ध में हरा कर सुग्रीव को राज्य दिलाना चाहिए था। पर ऐसा इसलिए नहीं कर सके क्योंकि तब तक उनका (परमात्म चेतना) प्रभु श्रीराम से कोई जुड़ाव नहीं था। वह अपना जीवन एक सामान्य वानर की तरह ही व्यतीत कर रहे थे।
🌸 जब मिला प्रभु श्रीराम का गुरुमंत्र
जब भगवान राम-लक्ष्मण माता सीता की खोज में वन वन भटक रहे थे तो वहाँ हनुमान जी का परिचय प्रभु श्रीराम-लक्ष्मण से होता है। प्रभु श्रीराम उन्हें गुरुमंत्र इस रूप में देते हैं-
समदर्शी मोंहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ।।
अर्थात मुझे सभी लोग समदर्शी कहते हैं, फिर भी मुझे अनन्य भाव से भजने वाला सेवक अत्यंत प्रिय है। फिर अनन्यभाव की व्याख्या करते हुए प्रभु श्रीराम कहते हैं-
सो अनन्य जाकी असि मति न टरई हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूपस्वामि भगवंत।।
अर्थात अनन्य भक्त- सेवक वह है जिसमें यह अटूट विश्वास हो, कि वह इस सृष्टि के कण कण में समाए परमात्मचेतना का सेवक है। जिसे सियाराममय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी। ही प्रतीत होता है।
🌼 आध्यात्मिक रहस्य: साधक का पहला चरण
शिष्य-साधक को, जब सद्गुरु से मंत्र दीक्षा प्राप्त होती है तो उसे हनुमान जी की ही तरह, ईश्वरीय चेतना से जुड़ने का, उसके अंतःकरण में दिव्यशक्ति प्रवाह के अवतरण का एक साधनामार्ग प्राप्त होता है। यह प्रारम्भ है, अध्यात्म साधना का प्रथम चरण, पहला कदम है।
हनुमानजी के जीवन में वामन से विराट होने का, दिव्यचेतना प्रवाह के अवतरण का, आत्मबोध, आत्मज्ञान का वह दूसरा चरण कब आया ?
🌊 जब आया आत्मबोध का क्षण — समुद्र तट की कथा
जब हनुमान जी, ऋक्ष वानरों के दल के साथ, माता सीता का पता लगाने के लिए, ढूँढते ढूँढते समुद्र तट पर पहुँच गए और उन सभी के सामने मार्ग अवरोधक, विशाल समुद्र आ गया। जटायु के भाई संपाति ने जब बताया- मैं देखउँ तुम नाहिं, गीधहिं दृष्टि अपार। मुझे दिखाई दे रहा है , तुम्हें नहीं क्योंकि गिद्ध की दूरदृष्टि होती है- कि समुद्र के पार लंका में माता सीता अशोकवाटिका में बैठी हुई हैं।
आध्यात्मिक अर्थ:
जब तक शिष्य- साधक को, संपाती की तरह दूरदृष्टि- दिव्यदृष्टि प्राप्त सद्गुरु का मार्गदर्शन नहीं मिलता, और शिष्य- साधक चाहे कितना ही बली क्यों न हो ? जब तक उसे सद्गुरु के वचनों पर, मार्गदर्शन पर, तर्क- वितर्क से परे,अटूट श्रद्धा- विश्वास न हो। तब तक शिष्य साधक के वामन से विराट बनने की संभावना नगण्य ही होती है।समुद्र तट पर बैठे ऋक्ष वानरों का झुंड, सद्गुरु के शिष्यों के समूह के समान है, सद्गुरु का मार्गदर्शन सभी को प्राप्त हो रहा है, सभी यह विश्वास कर रहे हैं कि संपाति रूपी सद्गुरु सत्य कह रहे हैं कि समुद्र पार माता सीता अशोकवाटिका में विराजमान हैं। पर स्वयं पर विश्वास नहीं है.!
कि हम इस विशाल समुद्र को पार भी कर सकते हैं या नहीं ? देश, धर्म, संस्कृति, अपने अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हुए हैं, सद्गुरु की दृष्टि आसन्न संकट के विषय मे सचेत कर रही है पर ?
शिष्य- साधकों का समूह ऋक्ष-वानरों की तरह इस उहापोह में स्वयं को असहाय महसूस कर रहा है कि बात तो सत्य है, पर ??? इस विराट समुद्र को ? पार कैसे करें ? श्री सत्य सनातन धर्म पर छाए संकट को दूर हम भला कैसे कर सकते हैं ?
शिष्य साधक के जीवन मे पहला चरण- गुरुदीक्षा- गुरुमंत्र की प्राप्ति। दूसरा चरण- सद्गुरु के वचनों, मार्गदर्शन पर अटूट श्रद्धा निष्ठा। तीसरा चरण- स्वयं पर विश्वास-आत्मविश्वास कि हाँ मैं सद्गुरु के बताए मार्ग पर चलूँगा, मैं कर सकता हूँ, मैं करूँगा। मैं ईश्वरपुत्र हूँ, मेरा जन्म ही इसी कार्य के लिए हुआ है।
जब सभी ऋक्ष- वानर इस गंभीर समस्या के समाधान में स्वयं को असहाय समझ कर चुप चाप बैठे थे। जाम्बवन्त जी बोल उठे, “मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ, अन्यथा युवावस्था में जब भगवान वामन ने विराट अवतार दिखाया था तो मैंने उनकी प्रदक्षिणा कर ली थी।” पर अब ??? अंगद बोल उठे, “मैं एक ओर से तो समुद्र फलाँग कर जा सकता हूँ, पर दूसरी ओर से वापस लौटने में संदेह है।” अर्थात आत्मविश्वास ५०% था। तभी, जाम्बवन्त जी की नजर हनुमान जी पर पड़ी, बोल पड़े,- का चुप साध रहे बलवाना ??
🔥 आत्मविश्वास का उदय — “राम काज लगि तव अवतारा”
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयऊ पर्वताकारा।।
अट्टहास करि गर्जा, कपि बढ़ि लागि अकास।
अर्थात जैसे ही, जाम्बवन्त जी ने यह कहा कि, अरे हनुमान तुम चुप क्यों बैठे हो ? तुम्हारा तो जन्म ही, प्रभु श्रीराम के कार्य के लिए हुआ है । यह सुनते ही हनुमानजी ने भयंकर अट्टहास करते हुए गर्जना की, उनका शरीर क्षण मात्र में विशालकाय पर्वत के समान मानो आकाश को छूने लगा।
आध्यात्मिक रहस्य-
हनुमान जी के लिए वह क्षण आत्मबोध का था, आत्मज्ञान का था, दिव्यशक्ति प्रवाह के अवतरण का था, वामन से विराट होने का था, जब जाम्बवन्त ने उन्हें झकझोरते हुए कहा, “राम काज लगि तव अवतारा।”
शिष्य- साधक की अंतश्चेतना को जब सद्गुरु की वाणी बारंबार सचेत करती है, राम काज लगि तव अवतारा। राम काज लगि तव अवतारा। जिस क्षण शिष्य साधक को हनुमान जी की तरह यह आत्मबोध हो जाये ? वह वामन से विराट हो जाता है, दिव्यचेतना प्रवाह के अवतरण से बड़े बड़े संकल्प लेने लगता है, लक्ष्यप्राप्त करने के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने लगता है।
क्योंकि वह जानता है , कि देनहार कोई और है, भेजत है दिन रैन, मैं तो निमित्त मात्र हूँ। यह कार्य तो परमात्मा का है, लक्ष्यप्राप्त करने के लिए आवश्यक ज्ञान, विद्या, बुद्धि, शक्ति,साधन, संसाधन, सब वही देंगे। आत्मबोध से आत्मविश्वास १००% हो गया, मैं कर सकता हूँ, मैं करूँगा।
दिव्यचेतना के असीम शक्तिप्रवाह का अवतरण हनुमान जी पर जब उस क्षण हुआ तो ?? सुग्रीव के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर छिप कर रहने वाले,वानरों के समूह में चुप चाप बैठे रहने वाले हनुमान गरजने लगे- “मैं लंका को गूलर के फल की भाँति समुद्र में डुबा दूँगा, रावण को कुल खानदान समेत नष्ट कर दूँगा, सीता जी को अभी वहाँ से ले आऊँगा।”
शक्तिप्रवाह सम्हाले नहीं सम्हल रहा है, हनुमान उछल रहे हैं, गर्जना कर रहे हैं। जो कार्य पहले असंभव माने बैठे थे अब लग रहा है ये तो कुछ भी नहीं है। मैं तो इसे खेल खेल में चुटकियों में कर सकता हूँ क्योंकि, “राम काज लगि मम अवतारा” जो हो गया था।
जाम्बवन्त फिर सम्हालते हैं, रोकते हैं, “नहीं नहीं ! हनुमान ऐसा कुछ नहीं करना है, केवल तुम माता सीता का पता लगा कर, प्रभु श्रीराम का संदेश देकर चले आओ।
फिर भी हनुमान जी, कंट्रोल नहीं रख पाये, अशोक वाटिका उजाड़ दिया, राक्षसों को, रावण के पुत्र अक्षयकुमार को मार दिया, लंका नगरी में आग लगा कर ही माने।
आध्यात्मिक रहस्य-
साधक- शिष्य में साधनामार्ग पर चलते हुए जब आत्मबोध होता है, “राम काज लगि मम अवतारा” तब उसके हृदय में दिव्यशक्तिप्रवाह अवतरित होता है।
वह शक्ति अनियंत्रित न हो जाये अन्यथा लक्ष्यप्राप्त न करके भटक कर विध्वंस में न लग जाये, इसलिए शिष्य साधक को तब भी, सद्गुरु के नियंत्रण, निर्देशन, मार्गदर्शन में ही कार्य करते रहना चाहिए, जब तक उस महान लक्ष्य, राम काज की प्राप्ति न हो जाये।
हनुमान जब लंकानगरी से वापस लौटे तो- ये बात उन्हें भली भाँति समझ में आ गयी थी कि जो कुछ भी हुआ उस में मेरी शक्ति काम नहीं कर रही थी, बल्कि दिव्यशक्ति प्रवाह मुझसे ये असंभव कार्य करवा रहा था।
इसीलिये जब प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए, उन्हें गले लगा लिया था तो हनुमान जी ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया था-
शाखामृग की बड़ प्रभुताई।
शाखा ते शाखा पर जाई।।
अर्थात पेड़ की डालियों पर उछलने वाले वानर की क्षमता तो बस इतनी सी होती है कि वह एक डाली से दूसरी डाली पर छलाँग मारता रहता है।
नाघि सिंधु, हाटकपुर जारा।
निशिचर बध सब विपिन उजारा।।
सो सब तव प्रताप रघुराई।
अर्थात विशाल समुद्र को उछल कर पार कर लेना, सोने की लंकानगरी को जला देना, राक्षस सब को मारना, अशोक वाटिका को उजाड़ देना, प्रभु ! ये सब असंभव कार्य तो सब आप के ही दिव्यशक्ति प्रवाह के कारण सम्पन्न हुए हैं। इसमें मेरा कुछ भी श्रेय नहीं है।
जो सच्चे शिष्य हैं- साधक हैं, उन्हें हनुमान जी के इस वामन से विराट बनने के आध्यात्मिक रहस्य को मनन, चिंतन कर स्वयं को भी भक्त शिरोमणि हनुमान की तरह स्वयं को राम काज लगी मम अवतारा की भावना के साथ यह दृढ़ संकल्प लेना चाहिए
💫 साधक के जीवन के तीन चरण
गुरुमंत्र की प्राप्ति – आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ
सद्गुरु पर श्रद्धा और निष्ठा – मार्ग में स्थिरता
आत्मविश्वास का जागरण – “राम काज लगि मम अवतारा” की अनुभूति
जब साधक को यह अहसास हो जाता है कि वह राम कार्य के लिए जन्मा है,
तो उसके भीतर की दिव्यशक्ति प्रवाहित होने लगती है।
🔥 आत्मबोध से विराटता तक
हनुमान जी बोले —
“मैं लंका को गूलर के फल की भाँति समुद्र में डुबा दूँगा,
रावण का अंत कर दूँगा, सीता माता को लौटा लाऊँगा।”
यह आत्मबोध था — मैं कर सकता हूँ, मैं करूँगा।
पर सद्गुरु जाम्बवन्त ने संयम सिखाया —
“केवल राम कार्य करना है, विध्वंस नहीं।”
🕉️ नम्रता और सच्चा ज्ञान
जब प्रभु श्रीराम ने उनकी प्रशंसा की, तो हनुमान जी बोले —
शाखामृग की बड़ प्रभुताई।
शाखा ते शाखा पर जाई।।
नाघि सिंधु, हाटकपुर जारा।
निशिचर बध सब विपिन उजारा।।
सो सब तव प्रताप रघुराई।
हनुमान जी जानते थे — यह उनकी नहीं, राम की शक्ति थी जो उनके माध्यम से कार्य कर रही थी।
🌺 निष्कर्ष | Conclusion
जो भी साधक अपने जीवन में राम काज लगि मम अवतारा का संकल्प लेता है,
वह हनुमान जी की तरह वामन से विराट बन जाता है।
वह जानता है कि कार्य परमात्मा का है, मैं केवल निमित्त हूँ।
राम काज किन्हें बिना, मोंहि कहाँ विश्राम।।
✨ जय जय जय हनुमान गुसाईं ✨