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🌾 अन्नदात्री धान्यलक्ष्मी स्तोत्रम् 🌷 (हिन्दी अर्थ सहित) | Annadaatri Dhanya Lakshmi Stotram with Hindi Meaning

Annadaatri Dhanya Lakshmi Stotram

🕉️ परिचय

अन्नदात्री धान्यलक्ष्मी स्तोत्रम् देवी महालक्ष्मी का वह पवित्र स्तोत्र है जिसमें धान्य, अन्न, सुख और समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी की स्तुति की गई है।
जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे अन्नाभाव, दरिद्रता और दुर्भिक्ष से मुक्ति मिलती है। देवी धान्यलक्ष्मी गृहस्थ जीवन में समृद्धि, तृप्ति और शांति का वरदान देती हैं।


🌾 अन्नदात्री धान्य लक्ष्मी ध्यान स्तुति 🌾

शुभ्रवस्त्रां शशिप्रख्यां नीलपुष्पावलीं वहाम्।
हस्तयोः पूर्णकलशं धान्ययुक्तं दधानि च॥
वदने मन्दहासं या शुभलक्षणसंयुता।
सा देवी धान्यलक्ष्मीः सदा मे हृदि संस्थिता॥

अर्थ:
शुभ्र वस्त्रधारी, चन्द्रमा जैसी आभा वाली, नील पुष्पों की माला धारण किए, दोनों हाथों में धान्य-भरे कलश लिए, मंद मुस्कान और शुभ लक्षणों से युक्त जो देवी हैं — वे धान्यलक्ष्मी सदा मेरे हृदय में स्थित हों।

पीतहरितवसना सुमुखी सुविभक्ता
सिंहासने कमले सुविराजमानम्।
दशभुजां शङ्खचक्राङ्कितां शुभदृष्टिं
हस्तेषु गेहूमुषलेक्षणश्च॥१॥

अर्थ:
देवी अन्नदा लक्ष्मी पीले और हरे वस्त्रों से शोभित हैं। उनका मुख सौम्य और तेजोमय है। वे एक सुंदर स्वर्णसिंहासन पर कमलासन सहित विराजमान हैं। उनके दस हाथ हैं, जिनमें शंख, चक्र, गेहूँ की बालियाँ, मूसल और हल जैसे कृषि-संवर्द्धक आयुध सुशोभित हैं।

इक्षुकाण्डं करकं च शुभं घटं च
हस्ते कमलमभयं च पात्रीम्।
पूर्णं पकेन सुभक्ष्ययुक्तमन्नं
ध्यानं तवाऽन्नदा लक्ष्मि भजामः॥२॥

अर्थ:
अन्य हाथों में वे इक्षु (गन्ने की छड़ी), मंगलकलश, कमल पुष्प, अभयमुद्रा, और एक पात्र धारण किए हुए हैं जिसमें पका हुआ स्वादिष्ट अन्न भरा हुआ है। हम अन्नदा लक्ष्मी का ऐसा ध्यान करते हैं, जो सभी को जीवनदायी धान्य और पोषण प्रदान करती हैं।

नमस्ते स्तु महालक्ष्मि! धान्यरूपेण संस्थिते।
अन्नदा त्वं जगन्माता नमस्ते कमलालये॥१

अर्थ:
हे महालक्ष्मी! आप धान्य रूप में स्थित हैं, सम्पूर्ण जगत की अन्नदाता माता हैं — आपको, कमल निवासिनी देवी को प्रणाम।

शस्यश्यामलभूम्यां या सम्पदा सन्निधायिनी।
वन्दे त्वामन्नपूर्णे त्वं जगतां पालिका सदा॥२

अर्थ:
जो हरी-भरी पृथ्वी पर समृद्धि की स्थापना करती हैं, उन अन्नपूर्णा देवी को मैं वन्दन करता हूँ, जो सदा संसार की पालनकर्त्री हैं।


पक्वधान्यसमृद्ध्यर्थं गृहस्थे या निवेशिता।
सदा सौम्या सदा पूर्णा लक्ष्मिर्नः सन्निधिं ययात्॥३

अर्थ:
जो पके हुए अन्न और धान्य की समृद्धि हेतु हर घर में निवास करती हैं, वही लक्ष्मी सदा हमारे समीप विराजें।


नित्यान्नदायिनी देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं शरण्या नमस्तुभ्यं त्वं मातृस्वरूपिणी॥४

अर्थ:
जो नित्य अन्न देनेवाली, भोग और मोक्ष देनेवाली, और मातृस्वरूपा शरणदात्री हैं — उन्हें नमस्कार है।


अक्षय्या त्वं सदैव स्यात् कोष्ठागारे महालये।
न मे क्लेशं प्रदास्येथाः सदा सौम्ये नमोऽस्तु ते॥५

अर्थ:
हे देवी! आप सदा अक्षय स्वरूपा बनकर मेरे भंडारगृह में वास करें; मुझे कभी दुःख मत देना — आपको कोटि नमन।


सुपक्वशालिमालिन्यै नवधान्यसुधाकरि।
सर्वसंपत्प्रदायिन्यै लक्ष्म्यै धान्यै नमो नमः॥६

अर्थ:
जो पके हुए चावल की माला धारण करती हैं, नवधान्य की सुधा बरसाती हैं, और सभी प्रकार की संपत्ति देती हैं — उन धान्यस्वरूपा लक्ष्मी को बारम्बार नमस्कार।


धरण्याः कोखिजा देवी वर्षधाराधिपालये।
त्वं जलं च तृणं चैव खाद्यं दास्यसि सर्वदा॥७

अर्थ:
हे देवी! आप पृथ्वी की कोख से उत्पन्न होकर वर्षा और अन्न की स्वामिनी हैं; आप ही जल, तृण, और समस्त खाद्य-पदार्थ प्रदान करती हैं।


क्षुत्पिपासाहरं यत्तदन्नं त्वत्प्रसादजम्।
त्वमेव कारणं पुंसां जीवितस्य धृतेः शिवे॥८

अर्थ:
भूख और प्यास को हरनेवाला अन्न आपके प्रसाद से ही प्राप्त होता है; हे शिवे! आप ही प्राणियों के जीवन और धारण शक्ति की आधार हैं।


सर्वभक्ष्यविकाराणां जननी त्वं प्रसीद मे।
अन्नवृष्टिप्रदा लक्ष्मि! धान्यरूपेण संस्थिता॥९

अर्थ:
हे लक्ष्मी! जो सभी भक्ष्य पदार्थों की जननी हैं, जो धान्य रूप में स्थित होकर अन्नवृष्टि करती हैं — कृपया मुझ पर प्रसन्न हों।


सृष्टिस्थित्यन्तकर्त्र्यै त्वं भूमौ बीजस्वरूपिणी।
फलधान्यादिदात्री च जगदम्बे नमोऽस्तु ते॥१०

अर्थ:
हे जगदम्बे! आप ही सृष्टि, स्थिति और प्रलय की कर्त्री हैं, भूमि में बीजस्वरूपा हैं, और फलों-धान्यों की दात्री हैं — आपको नमस्कार।


कर्षकानां वरदायि! हलध्वन्याश्रयालये।
क्षेत्रे क्षेत्रे समृद्धिं त्वं कुरु लक्ष्मि! नमोऽस्तु ते॥११

अर्थ:
हे लक्ष्मी! आप किसानों को वर देनेवाली हैं, हल की ध्वनि की आश्रयस्वरूपा हैं — कृपया प्रत्येक खेत में समृद्धि प्रदान करें।


गोदुग्धध्यानमग्नायै धान्यधारिण्यै नमः सदा।
मधुरं स्वादु यत्किंचित्तदन्नं ते प्रसादजम्॥१२

अर्थ:
जो गायों के दुग्ध और धान्य की धारण में लीन हैं — उन्हें सदा नमस्कार। जो भी स्वादिष्ट अन्न है, वह आपके ही प्रसाद से उत्पन्न होता है।


अन्नपूर्णे महालक्ष्मि! सर्वदुःखविनाशिनि।
तृप्तिं कुरु मम नित्यं गृहस्थे च चतुर्दिशम्॥१३

अर्थ:
हे महालक्ष्मी अन्नपूर्णा! आप सभी दुःखों की विनाशिनी हैं — कृपया मेरे घर और चारों दिशाओं में सदा तृप्ति बनाए रखें।


भोजनं मे सदा शुद्धं तव कृपानुकारिणि।
न दूष्येत क्वचिन्नित्यं अन्नं मे चाविकारितम्॥१४

अर्थ:
हे कृपालु देवी! मेरा भोजन सदा शुद्ध हो, वह कभी दूषित न हो, न विकृत — यह आपकी कृपा से ही संभव है।


अन्नसंपत्तिरूपायै सुसंस्कृतपचात्रये।
गृहलक्ष्म्यै नमस्तुभ्यं सुपाकप्रीतिदायिनि॥१५

अर्थ:
जो अन्न की संपत्ति स्वरूपा हैं, अच्छे पके भोजन में प्रीति देनेवाली हैं, और रसोई की त्रिविध संपदा की अधिष्ठात्री हैं — उन गृहलक्ष्मी को नमस्कार।


अनासक्तं च मे चित्तं भवेदन्ने सदा शुभे।
सर्वदा तव स्मरणं कुर्वे स्नेहेन संयुतम्॥१६

अर्थ:
हे शुभे! मेरे मन में अन्न के प्रति कभी आसक्ति न हो, किंतु प्रेमपूर्वक सदा आपका स्मरण बना रहे।


नमः शकुन्तिकायै त्वं पिशाचाद्यापहारिणि।
अन्नं रक्षासि सन्मार्गे त्वं च बाला वत्सला॥१७

अर्थ:
हे देवी! जो पिशाच आदि से रक्षा करती हैं, भोजन की पवित्रता की रक्षिका हैं, और बच्चों पर विशेष स्नेह करती हैं — उन्हें नमस्कार।


अन्नविघ्नहरायै च लक्ष्म्यै नम्रं नमो नमः।
सदा सुवासिनी देवी! सौभाग्यं देहि मे गृहे॥१८

अर्थ:
जो अन्न के विघ्नों को दूर करती हैं, उन्हें बारंबार नमस्कार। हे सुवासिनी देवी! कृपा कर मेरे घर सौभाग्य स्थापित करें।


श्रीफलाद्युपहाराणां स्वीकर्त्री त्वं च देवते।
नवधान्यै नवैश्वार्यै नमस्ते पुनः पुनः॥१९

अर्थ:
हे देवते! जो नारियल आदि अन्नादानों को स्वीकार करती हैं, जो नवधान्य और नव ऐश्वर्य की प्रदात्री हैं — उन्हें बारंबार प्रणाम।


अन्नशुद्धिः कलशस्था त्वं नित्यपूज्या गृहेश्वरि।
भुक्तिमुक्तिफलप्राप्त्यै धान्यलक्ष्मि! नमोऽस्तु ते॥२०

अर्थ:
हे गृहेश्वरी! आप अन्न की शुद्धि स्वरूपा हैं, कलश में पूज्य होती हैं, भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करती हैं — हे धान्यलक्ष्मी! आपको नमस्कार।


हव्यकव्यस्वरूपायै श्राद्धदाने समर्पिणि।
पितृप्रीतिप्रदात्री च नमस्तेऽन्नप्रदायिनि॥२१

अर्थ:
हे अन्नप्रदायिनी! आप ही हव्य और कव्य (देवताओं व पितरों को अर्पित अन्न) की स्वरूपा हैं, श्राद्धदान में समर्पिता और पितरों की संतुष्टि की दात्री हैं — आपको नमस्कार।

सपक्वकन्दमूलानि फलानि तव रूपिणि।
शाकाद्यन्नविधात्र्यै त्वं सर्वेषां जीवदायिनी॥२२

अर्थ:
पके हुए कन्द-मूल, फल, और शाक आदि सभी अन्नों का रूप आप ही हैं — आप ही सभी जीवों को जीवन देनेवाली देवी हैं।


दुग्धपयःपानकरसं स्वादुयुक्तं तव प्रभो।
कृपया कुरु मे नित्यं तृप्तिं सर्वत्र शाश्वतीम्॥२३

अर्थ:
हे प्रभो! दूध, मट्ठा, रस और मधुर भोजन आपकी कृपा से प्राप्त होते हैं — कृपया मुझे सदा पूर्ण तृप्ति प्रदान करें।


न क्षुत्पिपासया क्लेशं गृहवासे क्वचिद्भवेत्।
सर्वदुःखं विनश्येत् मे भवत्याः दर्शनादपि॥२४

अर्थ:
आपके दर्शन मात्र से मेरी भूख-प्यास के कष्ट, और गृहस्थ जीवन के सभी दुःख दूर हो जाएं।


कणधान्यादिसम्पन्नं गृहं कुरु सदा शिवे।
वितानं च सुपूर्णं मे कक्षे कक्षे च संस्थिते॥२५

अर्थ:
हे शिवे! मेरे घर को कण, धान्य आदि से भरपूर रखो; प्रत्येक कक्ष में आपकी पूर्ण उपस्थिति बनी रहे।


न मे गृहे कदाचन अशुचिर्भोजनं भवेत्।
पवित्रं सर्वदा लक्ष्मि! त्वत्प्रसादेन सम्पदि॥२६

अर्थ:
हे लक्ष्मी! आपके प्रसाद से मेरे घर में कभी अशुद्ध भोजन न हो — सदा पवित्रता और समृद्धि बनी रहे।


ब्रह्मवृन्देन पूज्यायै अन्नपूर्णे नमो नमः।
वेदवाणीसमाराध्या सर्वलोकहितैषिणि॥२७

अर्थ:
हे अन्नपूर्णे! आप ब्रह्मवृन्द (ऋषियों) द्वारा पूजित हैं, वेदवाणी से आराध्या हैं और समस्त लोकों का कल्याण चाहनेवाली हैं — आपको नमस्कार।


यज्ञभोग्ये हि देव्यस्त्वं हविर्भूतस्वरूपिणि।
त्वय्यन्यन्न न विद्येत् सृष्टौ धर्मः सनातनः॥२८

अर्थ:
हे देवी! आप यज्ञ में अर्पण होनेवाले हवि की स्वरूपा हैं; आपमें ही धर्म और सनातन सृष्टि का मूल है — आपसे भिन्न कुछ नहीं।


तृणं पुष्पं फलं वापि यदन्नं यत्पिबेन्नरः।
सर्वं भवति पुण्याय तव सन्निधिसंभवम्॥२९

अर्थ:
कोई भी तृण, पुष्प, फल, अन्न या जल जो मनुष्य ग्रहण करता है, वह पुण्यस्वरूप बन जाता है यदि वह आपकी उपस्थिति से उत्पन्न हो।


काले काले च सम्पूर्णं धान्यं मे यद्भवेत्सदा।
न च स्यान्मम दोषोऽत्र प्रपन्नस्येह मानदे॥३०

अर्थ:
हे मानदायिनी! कृपया प्रत्येक ऋतु में मेरे लिए धान्य की पूर्णता बनी रहे और कभी किसी दोष का प्रभाव न हो।


पच्यमानं यदन्नं मे पाकशालान्तरे सदा।
शिवं भवतु पूर्णं च रोगदोषविवर्जितम्॥३१

अर्थ:
मेरी रसोई में जो अन्न पके — वह सदा शुभ, पूर्ण और रोग-दोष से रहित हो — यही मेरी प्रार्थना है।


गन्धद्रव्यसमायुक्तं सुपक्वं मधुरं परम्।
सर्वे सन्तु तृप्तास्तेन भोजनान्ते सदा मम॥३२

अर्थ:
सुगंधित, मधुर और उत्तम पकवानों से मेरे भोजन का अंत हो — और सभी जन सदा संतृप्त रहें।


भोजने सन्तु मर्यादा व्रतिनां च विशेषतः।
न लंघ्यं भोजनं कुर्यां न खलु त्वामचिन्तयन्॥३३

अर्थ:
भोजन करते समय विशेषतः व्रतीजनों को मर्यादा का पालन हो; मैं कभी भी आपके स्मरण के बिना अन्न ग्रहण न करूँ।


अन्नप्राशनसमये सदा मातस्त्वमागता।
पुत्रजीवनहेतुः स्यात् प्रपन्नानां सदा धृतेः॥३४

अर्थ:
हे माता! जब शिशु को प्रथम अन्न दिया जाता है, उस समय भी आप ही पधारती हैं और उसकी दीर्घायु की अधिष्ठात्री बनती हैं।


गर्भिणीनां च सेवायै पुष्टिदायिनि मातरि।
अन्नस्वरूपिणि त्वं च चिरायौ देहि मे सदा॥३५

अर्थ:
हे मातः! आप गर्भवती स्त्रियों की सेवा में पुष्टिदायिनी हैं — अन्न की स्वरूपा बनकर दीर्घायु प्रदान करें।


कृष्याश्रया कृषिलक्ष्मीः हलपाणिं च धैर्यदा।
बीजसंज्ञा च या माता तस्यै नित्यं नमो नमः॥३६

अर्थ:
जो कृषि का आधार हैं, हल धारण कर धैर्य देती हैं, बीज रूप में स्वयं माता बनकर जीवन प्रदान करती हैं — उस कृषिलक्ष्मी को नित्य प्रणाम।


गोचरग्रामनिलया गवां पुष्टिविवर्धिनी।
सर्वसंपत्स्वरूपा सा ग्राम्यलक्ष्मी नमोऽस्तु ते॥३७

अर्थ:
जो ग्रामों में वास करती हैं, गायों की पुष्टिवर्धिनी हैं, और समस्त ग्राम्य जीवन की संपत्ति की स्वरूपा हैं — उन्हें ग्राम्यलक्ष्मी कहा जाता है — नमस्कार।


वने वने विचरन्ती या हरितवर्णा सुवासिनी।
वनफलप्रदात्री या वनलक्ष्मी सदा शुभा॥३८

अर्थ:
जो वनों में हरित स्वरूपा बनकर विचरण करती हैं, सौरभयुक्त वन्य फल प्रदान करती हैं — वे वनलक्ष्मी सदा मंगलमयी हैं।


शाकानि यानि पुष्ट्यर्थं पूज्यं भक्त्या यथासुखम्।
सा देवी शाकम्भरी लक्ष्मीः सर्वभक्षणदा शुभा॥३९

अर्थ:
जो पत्ते, सब्जियाँ और शाक रूप में पोषण देती हैं — वे शाकंभरी लक्ष्मी हैं, भक्तों को प्रिय और भक्षण की शक्ति प्रदान करती हैं।


सुपुष्पगन्धयुक्तायै पुष्पहारविलासिनी।
सुरसुराभिवन्द्यायै पुष्पावल्यै नमो नमः॥४०

अर्थ:
जो पुष्पों से सुसज्जित, सुरभियुक्त और पुष्पमालाओं की शोभा हैं, देवताओं और ऋषियों द्वारा पूजित — उन पुष्पावली लक्ष्मी को बारंबार नमस्कार।


आम्रं जाम्बूनमातङ्कं दाडिमं केलिमञ्जरीम्।
द्राक्षां नारिकलं चैव बिबीतकफलप्रभाम्॥
आमलक्यादिसम्पूर्णं फलं या प्रददाति नः।
सा फलप्रदा लक्ष्मीः सिद्धिं पुण्यं समृद्धिम्॥
ददातु मे सदा भक्त्या तां नमामि पुनः पुनः॥४१

अर्थ:
जो आम, जामुन, अनार, केला, अंगूर, नारियल, बेर आदि फलों के रूप में तृप्ति प्रदान करती हैं — वे फलप्रदा लक्ष्मी देवी मुझे सिद्धि, पुण्यफल और समृद्धि प्रदान करें। उन्हें मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ।


औषधीर्नानवर्णानि पुष्टिदाः शान्तिदायिनी।
तासां शक्तिस्वरूपायै औषधीलक्ष्म्यै नमोऽस्तु ते॥४२

अर्थ:
जो विविध रंग की औषधियों में विद्यमान होती हैं, जो आरोग्य और शांति देती हैं — उन औषधि लक्ष्मी को नमस्कार।


वनस्पतिर्गुणैः पूर्णा रसवर्णसमन्विता।
धातुवर्गप्रदायिन्या नमो वनस्पतेश्वरी॥४३

अर्थ:
जो गुणों से पूर्ण, रस-गंध-वर्णयुक्त, और धातु व रसधारा की दात्री हैं — वे वनस्पति लक्ष्मी हैं — उन्हें नमस्कार।


वृक्षेषु या स्थितिर्देवी पुष्पफलप्रदायिनी।
छायाशान्तिप्रदा या सा वृक्षेश्वरी नमोऽस्तु ते॥४४

अर्थ:
जो वृक्षों में स्थित होकर पुष्प, फल और छाया देती हैं, तथा शांति प्रदान करती हैं — वे वृक्षेश्वरी देवी हैं — उन्हें नमस्कार।


धान्यराशिप्रदायिन्यै अन्नपूर्णे नमो नमः।
विप्रपूज्ये गृहेशानि अन्नदा त्वं नमोऽस्तु ते॥४५

अर्थ:
जो धान्यराशि और अन्न की पूर्णता देती हैं, जो ब्राह्मणों और गृहस्थों द्वारा पूज्य हैं — वे ही अन्नदा लक्ष्मी हैं — उन्हें नमस्कार।


सुपात्रे दत्तमन्नं यत् पुण्यं त्वत्कृपया भवेत्।
दातारं त्रिदशाः पूज्यं कुर्वन्ति त्वत्स्मृतेः क्षणे॥४६

अर्थ:
आपके स्मरण मात्र से जो अन्नदान पुण्य बनता है, उसके दाता को देवता पूजनीय बना देते हैं।


येन केन न सन्तोषः क्षुधितो यः प्रजापति।
तं तूष्णीं कृत्य तृप्तं च करोषि त्वं दयालुता॥४७

अर्थ:
जो भूखे और निराश मनुष्यों को आप करुणा से तृप्त कर देती हैं — हे मातः! यह आपकी ही अनुकम्पा है।


अन्नं निन्दामि न कदाचित्सदा मातर्यहं तव।
त्वदीयं पूज्यरूपं हि भुञ्जे भक्त्या समाहितः॥४८

अर्थ
: हे माता! मैं कभी भी अन्न की निन्दा नहीं करता, क्योंकि वह आपका पूज्य रूप है — मैं श्रद्धा और समर्पण से उसे ग्रहण करता हूँ।


सर्वभूतहितार्थाय अन्नदानं सदा शुभम्।
कृपया त्वं च दातव्या सम्पत्तिः स्थिरता मम॥४९

अर्थ:
हे देवी! सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण हेतु अन्नदान करें — कृपया मुझे स्थिर संपत्ति और उदारता भी प्रदान करें।


मातः! त्वं पृथिव्याः मूलं, त्वं च ज्योत्स्ना दिवाकरात्।
त्वं जलं त्वं पयःस्वरूपा, त्वमेव तृप्तिहेतवः॥५०

अर्थ:
हे माता! आप ही पृथ्वी की मूल शक्ति हैं, सूर्य से निकलती ज्योति हैं, जल और दूध की स्वरूपा हैं, और तृप्ति का कारण भी आप ही हैं।


जगन्नेत्रं त्वया पूर्णं, जीवितं त्वत्प्रसादतः।
सर्वकालं तव स्मृत्या सम्पूर्णं भोजनं मम॥५१

अर्थ:
आपका ही प्रसाद जगत को पोषण देता है, मेरे जीवन की ऊर्जा भी आप ही हैं; आपकी स्मृति से मेरा भोजन सदा संपूर्ण होता है।


कभी न हो दीनता मम अन्नहीनं न जीवितम्।
विभवः सन्तु मे नित्यं अन्नपूर्णे! नमोऽस्तु ते॥५२

अर्थ:
हे अन्नपूर्णे! मुझे कभी भी दीनता या अन्न का अभाव न हो; सदा मेरे पास विभव (धन) और अन्न की पूर्णता बनी रहे।


शाकं फलानि मूलानि त्वमेव मूलकारणम्।
गृहस्थस्यैव रक्षणी त्वं गृहलक्ष्मी नमोऽस्तु ते॥५३

अर्थ:
हे गृहलक्ष्मी! आप ही शाक, फल, मूल और सभी पोषण के मूल कारण हैं; आप ही गृहस्थ जीवन की रक्षिका हैं।


यच्च्युतं पात्रतो नूनं यच्च दूषितमन्नकम्।
तस्य दोषं प्रसीद त्वं हरस्वन्नमहं पुनः॥५४

अर्थ:
यदि किसी कारण अन्न गिर गया हो या दूषित हुआ हो, तो कृपया उसके दोष को क्षमा करें — मैं पुनः ऐसी भूल न करूँ।


अन्नदा धान्यदे देवी! त्रैलोक्यपूजिता सदा।
मम गेहे स्थितिं कुर्याः सदा सौख्यप्रदा भव॥५५

अर्थ:
हे अन्नदा धान्यदेवी! आप तीनों लोकों में पूज्य हैं — कृपया मेरे घर में सदा निवास करें और सुख की दात्री बनें।


पुष्पलक्ष्मी त्वमसि देवि सुरभीगन्धरूपिणी।
हरिपादस्मृतिपुष्टिः सौगन्ध्या शुभदायिनी॥५६

अर्थ:
देवी पुष्पलक्ष्मी, जो पुष्पों की सुगंध से युक्त हैं, हरिपाद की स्मरण-शक्ति से संतोष प्रदान करती हैं और सौंदर्य तथा मंगल की दात्री हैं।


चम्पकादिपुष्पधारा चिन्मयी त्वं सदाभवेत्।
तप्तचित्तविनोदाय भक्तहृद्यानुकूलिनी॥५७

अर्थ:
चम्पक आदि पुष्पों की धाराओं के साथ सुशोभित, देवी चिन्मयी स्वरूपा होकर तप्त अंतःकरण को शांति देती हैं और भक्तों के हृदय में सदा प्रिय बनी रहती हैं।


फललक्ष्मी त्वमसि नित्यं फलेनैव फलेश्वरी।
फलबुद्धिः फलश्रद्धा फलदानविचक्षणा॥५८

अर्थ:
फललक्ष्मी देवी सभी प्रकार के शुभ फल प्रदान करनेवाली हैं। वह फलप्राप्ति की बुद्धि, श्रद्धा और उचित फलदान की समर्पण भावना की दात्री हैं।


कदली-द्राक्षा-फलदा सर्वसिद्धिफलप्रदा।
त्वमेव सततं देवि कामधेनुप्रदायिनी॥५९

अर्थ:
देवी फललक्ष्मी सभी प्रकार के शुभ और सिद्धिकारक फलों की दात्री हैं – जैसे कदली (केला), द्राक्षा (अंगूर)। वे इच्छाओं को पूर्ण करनेवाली कामधेनु के समान हैं।


औषधिशक्तिरूपेण त्वं संजीविन्यरोगिनी।
वनवन्याधिराज्ञी च त्रैलोक्यैः पूजिता सदा॥६०

अर्थ:
देवी औषधिशक्ति के रूप में संजीवनी शक्ति हैं जो आरोग्य देती हैं। वे वनों की अधिपति हैं और त्रैलोक्य (तीनों लोकों) में पूज्य हैं।


वनस्पतिलक्ष्मी त्वं हि मूलादीनां प्रवर्तिनी।
कन्दकल्पलता त्वं च यक्षगंधर्वसेविता॥६१

अर्थ:
देवी वनस्पतिलक्ष्मी समस्त वनस्पति, कन्द, मूल, और लताओं की प्रवर्तक हैं। वे दिव्य कल्पलता स्वरूपा हैं और यक्षों-गंधर्वों द्वारा पूजित हैं।


वृक्षेश्वरी त्वं जगतां छायादायिन्यनुप्रिया।
अश्वत्थारण्यसदृशी कल्पवृक्षस्वरूपिणी॥६२

अर्थ:
देवी वृक्षों की अधिष्ठात्री हैं, जो संसार को छाया प्रदान कर सुखद बनाती हैं। वे अश्वत्थ (पीपल) समान दिव्य और कल्पवृक्ष रूपा हैं।


शाखालता सुदर्शनाङ्गना त्वं च सौंदर्यवर्धिनी।
शिरीषमालतीमाल्यविभूषिता महेश्वरी॥६३

अर्थ
शाखाओं और लताओं की सौंदर्यवर्धिनी देवी, शिरीष और मालती फूलों की माला से सुसज्जित हैं, वे महेश्वरी के रूप में सुशोभित होती हैं।


अन्नदा लक्ष्मी त्वमसि सुरासुरार्चिता सदा।
श्रीसुपाकाधिदेवत्वं भूत्वा संपूर्णदायिनी॥६४

अर्थ
देवी अन्नदा लक्ष्मी सदा अन्नप्रदान करनेवाली हैं, जिन्हें देव और दैत्य दोनों पूजते हैं। वे श्रीसुपाका (अन्न पकाने के अधिदेवी) बनकर संतोष प्रदान करती हैं।६५


धान्यलक्ष्मी महालक्ष्मी कल्याणी कृतसंचरा।
यज्ञदात्री शुभाकारा सर्वसंपत्प्रदायिनी॥६६

अर्थ
देवी धान्यलक्ष्मी, जो सम्पूर्ण अन्न-धान्य की दात्री हैं, महालक्ष्मी स्वरूपा हैं। वे कल्याणकारी, यज्ञों की प्रेरक तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्य की दात्री हैं।


इदं स्तोत्रं पठेन्नित्यं भक्त्युक्तो गृहवासी यः।
न स भूखेन पीड्येत न च दुर्भिक्षक्लेशतः॥६७

अर्थ:
जो गृहस्थ भक्त नित्य श्रद्धा से इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह न कभी भूख से पीड़ित होगा, न ही कभी दुर्भिक्ष या अन्नाभाव से कष्ट पाएगा।


अन्नवृद्धिः सुखं शान्तिः संततिः संपदः स्थिराः।
सदा तस्य भवन्त्येव न हानिर्जायते क्वचित्॥६८

अर्थ:
उसके जीवन में अन्न की वृद्धि, सुख, शांति, संतान, और स्थिर संपत्ति सदा बनी रहती है — उसे किसी प्रकार की हानि नहीं होती।


यत्र यत्र पठेद्भक्त्या धान्यलक्ष्मीस्तवं शुभम्।
तत्र लक्ष्म्याः स्थिरं वासं कुर्वन्त्यखिलसिद्धिदा॥६९

अर्थ:
जहाँ कहीं भी यह धान्यलक्ष्मी स्तोत्र श्रद्धा से पढ़ा जाता है, वहाँ लक्ष्मी का स्थिर वास होता है और सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।


यं किञ्चिदपि यच्छक्त्या स्तुतं मातः समर्पितम्।
शाकंभर्यै नमस्तुभ्यमन्नपूर्णे महालक्ष्मि॥
तुष्टिं कुरु नमस्तुभ्यं नारायणि शुभे सदा॥७०

अर्थ:
हे माता! मेरी जितनी भी शक्ति है, उसी के अनुसार यह स्तुति अर्पित की गई है। हे शाकंभरी! हे अन्नपूर्णे! हे महालक्ष्मि! — आप इस प्रयास से संतुष्ट हों। हे शुभ नारायणी! — आपको बारंबार प्रणाम।

🌸 निष्कर्ष

यह स्तोत्र न केवल भौतिक अन्न-संपदा का वरदान देता है, बल्कि मानसिक शांति और आध्यात्मिक संतुलन भी प्रदान करता है।
“अन्नपूर्णे महालक्ष्मि!” का स्मरण घर में भोजन की शुद्धि, परिवार में सौहार्द, और जीवन में धन-धान्य की वृद्धि सुनिश्चित करता है।

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